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इसतरह ग्यारह अंग का पारगामी बनकर, उसने तीर्थंकर नामकर्म की सातिशय पुण्यशाली प्रकृति का बंध किया तथा सिंह निष्क्रीड़ित आदि कठिन तपस्या करके आयु के अन्त में समाधिमरण पूर्वक देह त्याग कर सर्वार्थसिद्धि के वैजयन्त विमान में तैंतीस सागर की आयु का धारक अहमिन्द्र हुआ।
तत्पश्चात् जब उस अहमिन्द्र की आयु छह माह शेष बची, तब इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में चन्द्रपुर नामक नगर में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्रीय आश्चर्यजनक वैभव के धारक राजा महासेन एवं रानी लक्ष्मणा के घर रत्नों की वर्षा आरंभ हो गई, अहमिन्द्र के अंतिम ६ माह पूर्ण होने पर वह लक्ष्मणा के गर्भ से तीर्थंकर पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। | तीर्थंकर के जीव के गर्भ में आने के ६ माह पूर्व से जन्म तक पन्द्रह माह तक जो रत्नों की वर्षा होती है, देवियाँ माता की सेवा करती हैं, माता सोलह स्वप्न देखती हैं। वह सब प्रक्रिया सभी तीर्थंकरों के गर्भजन्म काल के समान हुई।
देवोपनीत वस्त्र, माला, लेप तथा शय्या आदि के सुखों का समुचित उपभोग करनेवाली रानी ने चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन पिछली रात्रि में १६ स्वप्न देखे। प्रात: सज-धजकर सिंहासन पर बैठे महाराज से रानी ने रात्रि के पिछले प्रहर में देखे स्वप्नों का फल पूछा - राजा महासेन ने अपने अवधिज्ञान से उन स्वप्नों का फल जानकर रानी को प्रत्येक स्वप्न का फल बतलाया, जिन्हें सुनकर रानी बहुत हर्षित हुई। श्री, ह्रीं, घृति, कीर्ति आदि देवियाँ माता की सेवा में रहकर उनकी कान्ति, लज्जा, धैर्य, कीर्ति, बुद्धि और सौभाग्य सम्पत्ति को सदा बढ़ाती रहती थीं।
इसप्रकार कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर रानी ने पौष कृष्णा एकादशी के दिन देवपूजित, अचिंत्य प्रभा के धारक और तीन ज्ञान से सम्पन्न पुत्र को जन्म दिया। उसीसमय इन्द्र ने आकर महासुमेरु के शिखर पर विद्यमान सिंहासन पर तीर्थंकर बालक को विराजमान किया, क्षीरसागर के जल से उनका जन्माभिषेक किया, सबप्रकार के आभूषणों से विभूषित किया, फिर हर्षोल्लास से हजार नेत्रों से उनके दर्शन किए; फिर ७