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| जिनधर्म में तो यह आम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर फिर छोटा पाप छुड़ाया है, इसलिए इस मिथ्यात्व को सप्त व्यसनादि से भी बड़ा पाप जानकर पहले छुड़ाया है। | आगम में इस मिथ्यात्व के विषय में क्या-क्या नहीं कहा, जितने कठोर शब्द हो सकते थे, लगभग सबका प्रयोग करके इसे त्यागने की प्रेरणा दी है, जो मूलत: इसप्रकार है -
सकल दुरितं मूलं, पाप वृक्षस्य बीजं । नरक गृह प्रवेशं, स्वर्ग मोक्षक शत्रुम् ।। त्रिभुवन पति नियं, मूढ़ लोकैर्ग्रहीतुम् ।
त्यजः सकलमसारं, त्वं च मिथ्यात्व बीजम् ।। मिथ्यात्व के समान पाप और सम्यग्दर्शन के समान धर्म नहीं है; अत: सामान्य श्रावकों को मिथ्यात्व | के कारणभूत मिथ्या देव-गुरु-धर्म तथा इनके सेवकों से भी सदा दूर ही रहना चाहिए, ताकि उसके दुष्प्रभाव से बचा जा सके।
जहाँ असंयम रहता है, वहाँ उसके साथ प्रमाद, कषाय और योग भी रहते हैं, जहाँ प्रमाद रहता है वहाँ उसके साथ कषाय और योग - ये दो कारण रहते हैं तथा जहाँ कषाय का भी अभाव हो जाता है वहाँ मात्र योग ही बंध का कारण बचता है। मात्र योग से अनन्त संसार का बन्ध नहीं होता। समय पाकर सभी कर्म निर्जरित हो जाते हैं। कर्मों के नाश होते ही जीव के संसार का अभाव हो जाता है।
जो पापरूप हैं और जन्म-मरण ही जिसका लक्षण है - ऐसे संसार के कारण नष्ट हो जाने पर आत्मा के क्षायिकभाव ही शेष रह जाते हैं।
इसप्रकार अंतरंग में हिताहित का यथार्थ स्वरूप जानकर पद्मनाभ ने बाह्य सम्पदाओं की प्रभुता अपने पुत्र सुवर्णनाभ को सौंप दी और बहुत राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। अब वह मोक्ष का कारणभूत दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप - इन चार आराधनाओं का आचरण करने लगा। दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करने लगा।
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