________________
REFFFFFF 9
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागम तपो भृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टांगम्, सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।।४।। आत्मश्रद्धा के साथ सच्चे-देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा है। वह सम्यग्दर्शन तीन मूढ़ता || एवं आठों मदों से रहित और आठों अंगों सहित होता है। | देव-शास्त्र-गुरु व सात तत्त्वों के संबंध में उल्टी मान्यता को मिथ्यात्व कहते हैं। विपरीत अभिप्राय सहित अतत्त्वश्रद्धान का नाम ही मिथ्यात्व है। जैसा वस्तु का स्वरूप नहीं है, वैसा मानना तथा जैसा है वैसा नहीं मानना - ऐसे विपरीत अभिप्राय सहित अन्यथा प्रतीति ही मिथ्यादर्शन है।
इस मिथ्यात्व के कारण जीवों को समीचीन (सच्चा) धर्म अच्छा नहीं लगता। जिसतरह पित्तज्वरवालों को मीठा दूध अच्छा नहीं लगता, उसीप्रकार मिथ्यादृष्टियों को वीतरागधर्म की बात अच्छी नहीं लगती,शुद्धात्मा की बात नहीं सुहाती; अतएव मिथ्यात्व के त्याग का उपदेश देते हुए मार्मिक शब्दों में कहा गया है कि
वरं सर्पमुखं वासो, वरं च विषभक्षणम् ।
अचलाग्नि जले पातो, मिथ्यात्वे च जीवितम् ।। मिथ्यात्व सहित जीवन जीने से तो सर्प के मुख में प्रवेश करना अच्छा है, विषभक्षण कर लेना अच्छा | है, दावाग्नि में भस्म हो जाना या पानी में डूबकर मर जाना अच्छा है; पर मिथ्यात्व सहित जीवन जीना किसी भी हालत में अच्छा नहीं है; क्योंकि इनके कारण तो एक पर्याय ही नष्ट होती है, पर मिथ्यात्व के कारण तो भव-भव में दुःख भोगना पड़ता है।
भगवान की दिव्यध्वनि में आया मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है; क्योंकि इसी के कारण सब पापों की परम्परा चलती है। इसी विपरीत मान्यता या उल्टी समझ के कारण पर-पदार्थों में कर्तृत्व एवं इष्ट-अनिष्ट की मिथ्याकल्पना होती है, उसमें राग-द्वेष का जन्म होता है, राग-द्वेष से कर्मबन्ध होकर संसार में जन्ममरण का दुःख होता है।