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________________ (१०२ श ला का पु रु ष श्रेयोऽश्रेयश्चमिथ्यात्व, समं नान्युत्तनुभृताम् । । ३४।। प्राणियों को तीनों लोकों व तीनों कालों में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई कल्याणकारी और मिथ्यात्व के समान अन्य कोई अकल्याणकारी वस्तु नहीं है । इस जीव का तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान कोई आत्मबन्धु नहीं है और मिथ्यात्व के समान दूसरा कोई दुःखदायक शत्रु नहीं है; इसलिए मिथ्यात्व का त्याग करके सम्यक्त्व को अंगीकार करो। यही आत्मा र्द्ध को कुमार्ग से बचानेवाला है। m IF F 10 उ सज्जन श्रोता ने कहा मैं कुछ समझा नहीं क्या पापों में भी बाप-बेटा का रिश्ता होता है और सम्यक्त्व | क्या चीज है ? थोड़ा खुलासा करके समझाइए न ? रा हाँ, सुनो! जैनदर्शन में मिथ्यात्व को सर्वाधिक अहितकारी और सम्यक्त्व को परम हितकारी बताया है । इस संदर्भ में निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है । न सम्यक्त्व समं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । एक मिथ्यात्वभाव से ही सब पापों का जन्म होता है; अत: इसे सब पापों का बाप कहा जाता है और सम्यक्त्व ही धर्म का मर्म है, धर्म का मूल है, इसकारण इसे मोक्ष का मूल कहा जाता है। मिथ्यात्व का अर्थ है - आत्मा, साततत्त्व और सच्चे देव -शास्त्र-गुरु के संबंध में उल्टी समझ, विपरीत मान्यता और सम्यक्त्व का अर्थ है इनके संबंध में सच्ची समझ, यथार्थ मान्यता । सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी है, सम्यग्दर्शन के बिना धर्म का शुभारंभ ही नहीं होता । सम्यग्दर्शन की महिमा में यहाँ तक लिखा है " इस संसार में एकमात्र सम्यग्दर्शन ही दुर्लभ है, | सम्यग्दर्शन ही ज्ञान व चारित्र का बीज है, इष्टपदार्थ की सिद्धि है, परम मनोरथ है, अतीन्द्रिय सुख है और | यही कल्याणों की परम्परा है - ऐसे सम्यग्दर्शन के स्वरूप का कथन करते हुए कहा गया है कि शुद्ध जीव का साक्षात् अनुभव होना निश्चय सम्यग्दर्शन है तथा जीवादि सातों तत्त्वों की तथा सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की यथार्थ श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है । र्थं क र च न्द्र प्र भ पर्व
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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