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का विचार कर भोगों से विरक्त हो गया। वह विचार करने लगा
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" इस जीव का जो शरीर में निवास | होता है वह आयुकर्म के निमित्त से ही होता है । मैं यद्यपि अभी शरीर में स्थित हूँ, तथापि इस शरीर में | रहने की भी काल की सीमा निश्चित है । अंजुली के जल की भांति आयुकर्म भी प्रतिपल उत्तरोत्तर कम होता जा रहा है । अत: जबतक मैं इस देह में हूँ, जबतक आयुकर्म समाप्त नहीं हो जाता तबतक मैं मोक्षमार्ग में उत्साह के साथ प्रवृत्ति करके मानव पर्याय को सफल कर लूँगा । "
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इसप्रकार विषयाभिलाषा के आशारूप पाश को छेदकर राजा विमलवाहन ने राज्य सम्पदा से निस्पृह होकर अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण कषायों को कुचलते हुए अनेक राजाओं के साथ जिनदीक्षा अंगीकार कर ली ।
पूर्वराजा एवं वर्तमान मुनिराज विमलवाहन और कोई नहीं, वर्तमान चौबीसी के दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ स्वामी के पूर्वभव के ही जीव थे। मुनिराज विमलवाहन ने स्वभाव सन्मुखता के अपूर्व पुरुषार्थ द्वारा आत्मविशुद्धि के साथ ग्यारह अंग का ज्ञान तो प्राप्त कर ही लिया साथ ही दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं के चिन्तन से तथा सम्पूर्ण विश्व के प्रति धर्म वात्सल्य की उत्कृष्ट भावना से तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी कर लिया था ।
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इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनेवाले तपस्वी मुनिराज विमलवाहन आयु के अन्त में पंच परमेष्ठियों का स्मरण करते हुए समाधिमरण कर तैंतीस सागर की आयुवाले सर्वार्थसिद्धि के अन्तर्गत विजय नामक अनुत्तर जि विमान में अहमिन्द्र हुए। वहाँ द्रव्य शुक्ललेश्या एवं भाव शुक्ललेश्या सहित समचतुरसंस्थान से युक्त प्रशस्त रूप-रस-गंध-स्पर्श से सम्पन्न अहमिन्द्र हुए। वे सर्वार्थसिद्धि में सोलह माह व पन्द्रह दिन बाद उच्छ्वास लेते थे । तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार ग्रहण करते थे । लोकपर्यन्त के समस्त रूपी पदार्थों को अपने अवधिज्ञान से जान / देख सकते थे। वह लोक नाड़ी पर्यन्त अपने शरीर को विक्रिया के द्वारा छोटाबड़ा भी कर सकते थे। लोक नाड़ी को उखाड़कर अन्यत्र रख दें- ऐसे शारीरिक विशिष्ट बल के धारक थे।
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