SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । छयालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को; ले तप बढ़ावन हेतु, नहिं तन पोषते तजि रसन को। शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखिमैं गहैं लखिकै धरैं; निर्जन्तु थान विलोकि, तन-मल-मूत्र-श्लेषम परिहरैं।। पंचेन्द्रियजय - रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ-असुहावने। तिनमें न राग-विरोध पंचेन्द्रिय जयन पद पावने ।। स्पर्शनादि पंचेन्द्रिय के इष्टानिष्ट विषयों में राग-द्वेष रहित हो जाना पंचेन्द्रियजय या पंचेन्द्रिय निरोध कहा जाता है। मुनिराज अपनी रुचि के अनुकूल-सुहावने लगनेवाले स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु व कर्णेन्द्रिय के विषयों में अनुराग नहीं करते, हर्षित नहीं होते तथा प्रतिकूल लगनेवाले इन्द्रिय विषयों में द्वेष-घ्रणा या असंतोष प्रगट नहीं करते; बल्कि दोनों परिस्थितियों में एक-सा साम्यभाव रखते हैं। इन्द्रिय विषयों से संबंधित उनके इस समताभाव को पंचेन्द्रियजय मूलगुण कहा जाता है। षट् आवश्यक - समता सम्हारें, थुति उचारै वन्दना जिनदेव को। नित करैं श्रुति रति, करें प्रतिक्रम, तजै तन अहमेव को। वीतरागी मुनिराज सदा त्रिकाल सामायिक, स्तुति, वंदना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग करते हैं। उनकी ये क्रियायें प्रतिदिन अवश्य करने योग्य हैं अत: आवश्यक कहलाती हैं। किन्तु मुनिराज इन्हें स्ववश होकर करते हैं। उन्हें ये खेंच कर नहीं करनी पड़ती। मूलाचार ग्रंथ में मुनि के षट् आवश्यकों का संक्षिप्त स्वरूप इसप्रकार है - १. सामायिक - चित्त को एकाग्र करके शुद्धात्मा-कारणपरमात्मा और कार्यपरमात्माओं के रूप में पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का चिन्तन करना सामायिक है। 40 41REE
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy