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प्रस्तुत हरिवंश कथा ग्रन्थ पाठकों की रुचि और बुद्धि के अनुकूल सरल, सुबोध और आधुनिक शैली में लिखा गया है, जो अनति विस्तृत और अल्पमूल्य में उपलब्ध है। ॥ इसमें उचित संशोधन के साथ धार्मिक विषयों का समावेश भी है, तथा करणानुयोग, चरणानुयोग और
द्रव्यानुयोग सम्बन्धी आवश्यक सामग्री भी रख दी गई है। वर्तमान में ऐसे ही ग्रन्थों की आवश्यकता है, | जिसकी पूर्ति ऐसी रचनाओं से की जा रही है। विद्वान लेखक का यह परिश्रम सराहनीय है। इस दिशा में लेखक | आगे और भी प्रयास करें तो निःसंदेह समाज उनकी कृतियों का स्वागत करेगा।"
वयोवृद्ध विद्वान पण्डित नाथूलालजी शास्त्री इन्दौर के उपर्युक्त प्रोत्साहन से भरपूर पत्र ने मेरे उत्साह में चार चाँद लगा दिए। पण्डितजी साहब के मन्तव्यानुसार ही मेरे मन में भी बहुत दिनों से यह बात खटक रही थी।
जब हमने अपने महाविद्यालय के पाठ्यक्रम में आदिपुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण और हरिवंश पुराण स्वयं पठन के रूप में रखे और प्रत्येक ग्रन्थ में पास होने के लिए अन्य ग्रन्थों के साथ ३०-३० अंक रखे तो छात्रों ने ग्रन्थों की बोझिलता के कारण उनकी उपेक्षा करके ३० अंकों का नुकसान करके केवल ७० अंकों में से ही उत्तीर्ण अंक प्राप्त करना पसन्द किया। तभी से मेरे मन में यह भावना थी कि इन ग्रन्थों के कोई ऐसे लघु संस्करण निकलें, जिससे पाठकों को प्रयोजनभूत सामग्री तो पूरी मिल जाय और अनावश्यक बोझिल विस्तार से पाठक
बच जायें।
इसी बीच मैं हृदय रोग से पीड़ित हो गया तो मुझे विचार आया - "कहीं ऐसा न हो कि पुराणों का यह काम बिना किए ऐसा ही रह जाय? क्यों न मैं ही इस दिशा में प्रयास करूँ? इस बहाने प्रथमानुयोग का एक बार पुनः पारायण (स्वाध्याय) भी हो जायगा और यदि होनहार हुई तो काम भी हो जायगा और मैंने सर्वप्रथम हरिवंश कथा के काम को हाथ में लिया । काम आरंभ के साथ यह संकल्प किया कि इसे तो पूरा करना ही है; पर संकल्प करने से काम थोड़े ही हो जाता है । हरिवंश कथा के अधूरे काम में ही हृदय रोग का पुनः आक्रमण हो गया । जाँच कराने पर तुरन्त हृदय शल्य चिकित्सा (ओपन हार्ट सर्जरी) की सलाह मिली। तीन माह कम्पलीट ॥ बेड रेस्ट की हिदायत मिली; परन्तु मैंने हिदायत की थोड़ी उपेक्षा करके हरिवंश कथा के शेष काम को पूरा |O
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