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नहीं हैं, एकबार बंद हुए ओंठ पुन: खुले नहीं हैं, दीर्घकाय कायोत्सर्ग से दृढ़ होकर खड़े हैं, सब लोक उनकी | कठिन तपस्या को आश्चर्य के साथ देख रहा है। उनके चारों ओर सांपों ने बांबी बना ली हैं; लतायें सारे शरीर से लिपट गई हैं, अनेक सर्प-बिच्छू जैसे जहरीले जीव-जन्तु उनके शरीर के आस-पास इधर-उधर घूमते हैं, परंतु वे चित्त को स्थिर नहीं कर पा रहे हैं। वे अकंप पत्थर की मूर्ति के समान खड़े हैं।" | यह सुनकर भरतजी को भी आश्चर्य हुआ। दीक्षा लेकर एक वर्ष होने पर भी मेरु के समान खड़े हैं। भगवान ही जाने उनके तपोबल को। इतनी उग्रता क्यों ? इन सब बातों को भगवान ऋषभदेव से ही पूछेगे, इस विचार से भरतजी एकदम उठे व विमानारूढ़ होकर आकाशमार्ग से कैलाश पर्वत पर पहुँचे । समवसरण में पहुँचकर परम पिता परमात्मा के चरणों में भक्ति से नमस्कार किया। तदनन्तर कच्छ केवली, महाकच्छ केवली व अनंतवीर्य केवली की वंदना की। बाद में भगवान ऋषभदेव की भक्ति से पूजाकर उन तीनों केवलियों की भी भक्तिपूर्वक पूजा की, स्तुति की और अपने योग्य स्थान में बैठकर भगवान ऋषभदेव से जिज्ञासा प्रगट की कि "बाहुबली योगी को अत्यंत घोर तपश्चर्या करने पर भी केवलज्ञान की प्राप्ति क्यों नहीं हो रही है ?"
तीर्थंकर ऋषभदेव की दिव्यध्वनि में समाधान हुआ - "हे भव्य ! घोर तपश्चर्या करने मात्र से कुछ नहीं होता? अंतरंग में एक अन्तर्मुहूर्त तक परिणाम स्थिर होना चाहिए। इस चंचल चित्त को आत्मा में स्थिर करने की आवश्यकता है। संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ की तीव्रता उपयोग के स्थिर होने | में बाधक है, अत: उनको कैवल्य की प्राप्ति नहीं हो रही है ? बाहर के सर्व पदार्थों को छोड़ना सरल है, परंतु अंतरंग में स्थिरता लाना कठिन होता है।
आत्मा में मन की स्थिरता होने पर ही आत्मसुख का लाभ होता है, आत्मसुख की प्राप्ति मुनियों को भी कठिनता से होती है। हे भरत! प्रसन्नता यह है कि इतने बड़े राज्य का सत्ता भार होते हुए भी तुम्हारे लिए आत्मसुख का सौभाग्य सहज मिला है। भरत! सुनो, धान के छिलके निकालकर जिसप्रकार चावल पकाया जाता है, उसीप्रकार अन्य मुनिजन पंचेन्द्रियसंबंधी विषयों को त्यागकर जो आत्मनिरीक्षण करते हैं, तुम उन || १५
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