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इसप्रकार जैनदर्शन की मान्यतानुसार यह विश्व छह द्रव्यों का समूह है, और अनादि-अनन्त स्वनिर्मित है, इसे किसी ने बनाया नहीं है, इसका नाश और रक्षा भी कोई नहीं करता । सम्पूर्ण द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र और स्वावलम्बी है । कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के आधीन नहीं है। कर्म बलवान हैं और जीव को सुखदुःख देते हैं। ऐसा कथन जो जिनवाणी में आता है, उससे मात्र निमित्त-नैमित्तिक दशा का ज्ञान कराया है। उनमें कर्ता-कर्म संबंध नहीं है। "
ऊपर जो घड़ी, घंटा, दिन, प्रहर, मास, अयन, वर्ष आदि व्यवहारकाल की चर्चा आई है, उसके मूलत: दो भेद हैं (१) उत्सर्पिणीकाल (२) अवसर्पिणी काल । जिसमें मनुष्यों के बल, आयु और शरीर का प्रमाण क्रम-क्रम से बढ़ता जाये, वह उत्सर्पिणी काल है और जिसमें ये क्रम से घटते जायें वह अवसर्पिणी काल है । इन दोनों का काल प्रमाण जैनगणितानुसार दस-दस कोड़ा - कोड़ी सागर प्रमाण है । इसप्रकार | बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। इन दोनों कालों के छह-छह भेद हैं - वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल रहा है। अवसर्पिणी के छह भेदों में पहला सुखमा सुखमा, दूसरा सुखमा, तीसरा सुखमा- दुःखमा, चौथा दुःखमा सुखमा, पाँचवाँ दुःखमा और छठवाँ दुःखमा दुःखमा । उत्सर्पिणी के छहों भेद इनसे उलटे हैं अर्थात् वे छठवें से प्रारंभ होकर पहले तक आते हैं जैसे कि छटवाँ - दुःखमा| दुःखमा फिर पाँचवाँ - दुःखमा फिर चौथा - दुःखमा सुखमा। तीसरा सुखमा दुःखमा, दूसरा - सुखमा और पहला - सुखमा सुखमा । ये उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी- दोनों ही काल कृष्णपक्ष व शुक्लपक्ष की भांति सदैव बदलते रहते हैं ।
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पहले इस भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखण्ड में अवसर्पिणी का पहला भेद सुषमा- सुषमा नाम का काल बीत रहा था, उस काल का परिमाण चार कोड़ाकोड़ी सागर था, उससमय यहाँ देवकुरु और उत्तरकुरु नामक उत्तर भोगभूमियों में जैसी स्थिति रहती है, ठीक वैसी ही स्थिति इस भरतक्षेत्र में युग के प्रारम्भ अर्थात् अवसर्पिणी के पहले काल में थी । उससमय मनुष्यों की आयु तीन पल्य की होती थी और शरीर की ऊँचाई
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