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________________ FREE उनके द्वारा अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हो गये। फिर भी वे जल और फल के उपहारों से मुनिराज ऋषभदेव के चरण पूजते रहे; क्योंकि स्वयंभू भगवान ऋषभदेव के सिवाय उनका अन्य कोई उपास्य देव नहीं था। ऋषभदेव का पौत्र मारीचि भी साधु बन गया था। वह कुछ प्रतिभासम्पन्न तेजस्वी पुरुष था। अत: उसने उन भ्रष्ट राजाओं का प्रमुख बनकर उन्हें मिथ्यामत का उपदेश देकर एक पंथ का प्रवर्तन भी किया। जब धर्म के नाम पर यह सब उथल-पुथल हो रही थी, तब मुनिराज ऋषभदेव आत्मसाधना में लीन थे। तीन गुप्तियों के धारक थे। आत्मचिन्तन के सिवाय न मन में कुछ अन्य सोचते, न वाणी से कुछ कहते और न काया से कुछ करते - इसतरह मन-वचन एवं काय को काबू में रखकर तीन गुप्तियों का पालन करते हुए ध्यानस्थ थे। संयम उनका कवच था तथा सम्यग्दर्शन आदि गुण उनके सैनिक थे, जिनसे वे अपने आप में पूर्ण सुरक्षित थे। जब मुनिराज ऋषभदेव तप में लीन थे, तब उसी बीच में कच्छ-महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि राजकुमार मुनिराज ऋषभदेव के पास आये और प्रार्थना करने लगे कि हे भगवन्! आपने हमें राज्य में कुछ हिस्सा नहीं दिया, अत: हमें भी कुछ जीवन-निर्वाह की सामग्री प्रदान करो। ___ मुनिराज ऋषभदेव के तप में विघ्न के इस प्रसंग से धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। धरणेन्द्र ने अपना आसन कम्पायमान होने से यह जाना कि मुनि के स्वरूप से अनजान नादान राजकुमार नमि-विनमि मुनिराज के ध्यान में व्यर्थ ही विघ्न डाल रहे हैं तो धरणेन्द्र ने वेष बदल कर मुनिराज के पास पहुँच कर सर्वप्रथम मुनिराज की स्तुति-वंदना की फिर राजकुमार नमि-विनमि को समझाया कि - "ये मुनिराज तो सब ओर से पूर्ण निस्पृह हैं, तुम्हें इसतरह इनके ध्यान में विघ्न नहीं डालना चाहिए। यदि तुम्हें राजपाट, धनदौलत और भोग-सामग्री चाहिए तो महाराजा भरत के पास जाओ। मुनिराज तो सब कुछ छोड़कर मुक्ति की साधना कर रहे हैं। वे तुम्हें भोग सामग्री कहाँ से देंगे?" । यह सुनकर वे दोनों राजकुमार धरणेन्द्र से बोले - “हे महानुभाव! आप यहाँ से चले जाओ। हमें आपकी ||
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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