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________________ BREE उनकी दिव्यध्वनि अवश्य खिरती है; पर वे छद्मस्थ मुनिदशा में बिल्कुल नहीं बोलते । दिव्यध्वनि भी सर्वांग से खिरती है। अत: मुँह से तो वे फिर भी नहीं बोलते। स्वामीभक्ति से प्रेरित होकर ऋषभ मुनिराज के साथ आगा-पीछा सोचे बिना राजकच्छ एवं महाकच्छ आदि चार हजार राजाओं ने भी उनकी देखा-देखी जिनदीक्षा ले ली, किन्तु जब ऋषभ मुनि बिना कुछ कहे छह माह को ध्यानस्थ हो गये तो वे चार हजार मुनि वेषधारी राजा भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी के कारण भ्रष्ट हो गये। अब उनके लिए महाराज भरत के भय से पुन: वस्त्र धारण कर घर लौटना भी संभव नहीं था और यथार्थ मार्गदर्शक के बिना वन में रहना भी कठिन हो रहा था। वे मुनिराज ऋषभदेव के अनिश्चितकालीन ध्यान समाप्त होने की प्रतीक्षा में कबतक धैर्य रखते । अत: वन में ही कन्दमूल, फलादि के द्वारा अपना उदर पोषण करते हुए मुनिराज ऋषभदेव के ध्यान पूर्ण होने की प्रतीक्षा करने लगे। अस्तु, उसका दुष्परिणाम जो होना था, वह हुआ। जब वे भ्रष्ट होकर भक्ष्य-अभक्ष्य फल खाने लगे, नदी-तालाब का अप्रासुक पानी पीने लगे तो मुनिवेष में उनकी ऐसी अयोग्य प्रवृत्ति देखकर वनदेवता ने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा कि “तुम नग्न दिगम्बर वेष में ऐसा निंद्य काम मत करो।" वनदेवता ने आगे कहा - "अरे! भोले भक्तो! ऐसा दिगम्बर वेष तो सिंहवृत्ति के धारक तीर्थंकर आदि महापुरुष मोक्ष की साधना के लिए धारण करते हैं। इस वेष में तुम कायरों जैसी दीन-हीन दुष्प्रवृत्ति मत करो। दिगम्बर वेष में रहकर सचित्त कन्द-मूल मत खाओ और यह अप्रासुक जल मत पिओ। मुनिराज का बाह्य आचार अति उत्तम प्रकार का जगत के लिए आदर्श होता है।" वनदेवता के ऐसे वचन सुनकर राजा भयभीत हुए और नग्नवेष छोड़कर वल्कल (वृक्षों की छाल) आदि || अनेकप्रकार के वेष धारण कर स्वच्छन्दतापूर्वक रहने लगे। यद्यपि उनकी वह मजबूरी थी, परंतु धीरे-धीरे ||
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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