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________________ रत्नत्रय विधान समुच्चय महाऱ्या महाजयमाला (मानव) रत्नत्रय विधान करके रत्नत्रय को कर वंदन । रत्नत्रय उर में धारूँ क्षय कर दूँ भव के बंधन ॥१॥ चैतन्यतत्त्व के भीतर परिपूर्ण ज्ञान का सागर । निज परिणति प्रमुदित होतोभरलोनिज अनुभव गागर ।।२।। अपने स्वभाव की महिमा को थोड़ा सा तो जानो। तुम एक त्रिकालीध्रुव हो अपने को तो पहिचानो।।३।। भव-भव में भटके हो तुम चारों गतियों में जाकर । पशगति में भी जन्मे हो तुम ग्रीवक तक से आकर ||४|| निज बोधिप्राप्त करने को यह नरभव फिर पाया है। अपने कल्याण हेतु ही यह अवसर फिर आया है।।५।। अब रचा हृदय रांगोली समकित का स्वागत कर लो। मिथ्यामोह की सारी कालुषता अब तो हर लो।।६।। समकित जब पाया है तो संयम के गीत सुनाओ। हो गए स्वरूपाचरणी तो निज से प्रीत बढ़ाओ ।।७।। निष्कंटकमार्ग मिला है इस पर ही चलते रहना। उपसर्ग परीषह आए तो हँसकर उनको सहना ।।८।। तुमचलित न होना पलभर अविचल स्वभाव से चेतन। विश्राम पूर्ण पाना है तो हरना भव के बंधन ।।९।। सम्यक स्वभाव के निर्मल नित अर्घ्य चढ़ाऊँ स्वामी। पदवी अनर्घ्य पाऊँ मैं हो जाऊँ अन्तर्यामी ।।१०।। यह पूर्ण अयं जयमाला का सादर चरण चढ़ाऊँ। रत्नत्रय की महिमा पा शिवपथ पर चरण बढ़ाऊँ।।११।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महाजयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) रत्नत्रयमंडल विधान कर हुआ हृदय में बहुआनंद । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र से पाऊँगा निज परमानंद ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूं दिव्य दिगम्बरवेश ।। पुष्पांजलिं क्षिपेत् समुच्चय महाऱ्या (ताटक) निजभावों का महायं ले पाँचों परमेष्ठी ध्याऊँ। जिनवाणी जिनधर्म शरण पा देवशास्त्रगुरु उर लाऊँ।।१।। तीस चौबीसी बीस जिनेश्वर कृत्रिम-अकृत्रिमचैत्य ध्याऊँ। सर्व सिद्ध प्रभु पंचमेरु नन्दीश्वर गणधर गुण गाऊँ।।२।। सोलहकारण दशलक्षण रत्नत्रय नव सुदेव पाऊँ। चौबीसों जिन भूत भविष्यत वर्तमान जिनवर ध्याऊँ।।३।। तीनलोक के सर्वबिम्ब जिन वन्दूँ जिनवर गुण गाऊँ। अविनाशी अनर्घ्य पद पाऊँ शुद्ध आत्मगुण प्रगटाऊँ।।४।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, पूर्ण विनय से देव । आप कृपा से प्राप्त हो, परम शान्ति स्वयमेव ।। ॐ ह्रीं श्री अरहन्तसिद्धाचायोपाध्यायसर्वसाधुभ्यो, द्वादशांगजिनवाणीभ्यो उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय, दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः त्रिलोकसम्बन्धीकृत्रिमाकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो, पंचमेरौ अशीतिचैत्यालयेभ्यो, नन्दीश्वरद्वीपस्थद्विपंचाशज्जिनालयेभ्यो, श्री सम्मेदशिखर, गिरनारगिरि, कैलाशगिरि, चम्पापुर, पावापुर आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो, अतिशयक्षेत्रेभ्यो, विदेहक्षेत्रस्थित सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो, ऋषभादिचतुर्विंशतितीर्थकरेभ्यो, भगवज्जिन सहस्त्राष्ट नामेभ्येश्च अनर्यपदप्राप्तये महाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। शान्तिपाठ (गीतिका) सुख शान्ति पाने के लिए पुरुषार्थ मैंने प्रभु किया। श्रेष्ठ रत्नत्रयविधान महान प्रभु मैंने किया ।।१।। अब नहीं चिन्ता मुझे है कभी होऊँगा अशान्त । आज मैंने स्वतः पाया ज्ञान का सागर प्रशान्त ।।२।।
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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