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________________ रत्नत्रय विधान श्री कायगुप्तिधारक मुनिराज पूजन महाऱ्या (वसंततिलका) आनंदकंद महिमामय पूर्ण चेतन । ज्ञानाब्धि शुद्ध उर में निर्मल निकेतन ।। निर्मल पवित्र कैवल्य स्वज्ञान उर में। पाऊँ स्वशक्ति द्वारा ध्रुवधाम पावन ।। (वीर) काया में उपभोग न जाए यत्न करूँ यह भलीप्रकार । आत्मलीनता ही उर भाए मोह-राग का कर परिहार ।।१।। हो एकाग्र आत्मा में प्रभु काया की प्रवृत्ति रोकूँ। देह क्रिया में मन जाए तो आत्मज्ञान द्वारा टोकूँ ।।२।। हो स्वतंत्र जड़ तन से तोडूं हे प्रभु सारे ही संबंध । परिषह उपसर्गों को जयकर हो जाऊँ स्वामी निबंध ।।३।। बस थावर की हिंसा से पूरी निवृत्ति उत्तम स्वामी। कायगुप्ति सम्यक् ही पालूँ क्षयकर सात योग नामी ।।४।। काययोग औदारिक त्यागें त्यागूं प्रभु औदारिक मिश्र । काययोग वैक्रियक त्याग दूंतज दूंयोग वैक्रियक मिश्र ।।५।। काययोग आहारक त्यागँ तज आहारक मिश्र प्रभो। काययोग का मार्ग जीत लूँ निज स्वरूप में रहूँ विभो ।।६।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, कायगुप्ति के हेतु । आप कृपा से ज्ञान का, फहराऊँगा केतु ।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा) यह चिन्तन जागा हृदय, सचमुच मैं हूँ कौन । कायगुप्ति की कृपा से पाया सौख्य अचौन ।। (माधव मालती) ओ बसंती पवन पावन गीत समकित के सुनादे। सलिल सम्यग्ज्ञान की गंगोत्री उर में बहा दे।।१।। स्वरूपाचरणी प्रभा के लिए तरसा आज तक मैं। स्वतः सम्यक्त्वाचरण की मधुर ध्वनि उर में [जा दे।।२।। ज्ञानऋतु का यही मौसम देखना मैं चाहता हूँ। माननीया भावना को निज हृदय में अब नचा दे।।३।। यथाख्यात चरित्र की सम्पूर्ण भक्ति प्रदान कर दे। अवस्था अरहंतप्रभु सम तू अभी मेरी सजा दे ।।४।। मिथ्यात्वादिक चार प्रत्यय रास्ता रोके हुए हैं। बिना मौत मरा हुआ हूँ आ मुझे अब तो जिला दें।।५।। मार्ग में कठिनाइयाँ हैं मोहिनी अंगड़ाइयाँ हैं। तू मुझे सन्मार्ग शिवकर आ अभी जल्दी बता दे।।६।। रोग-भोग विनाश की औषधि कहाँ मुझको मिलेगी। देर मत कर शीघ्र आकर तू मुझे उसका पता दे।।७।। क्या कहा मैं स्वयं ही भंडार हूँ शिवसुखामृत का। बुद्धि मेरी मूर्छित है आ उसे अब तो जगा दे।।८।। स्वर्गसुख की कामना भी जीर्ण तृणवत् मुझे भासे। मुक्तिपथ की चाहना है, आ मुझे चलना सिखा दे।।९।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) कायगुप्ति की पूजन करके पाया निज पावन चारित्र। निज सम्यक् चिन्तन करके हो जाऊँगा पूर्ण पवित्र ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।। पुष्पांजलिं क्षिपेत्
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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