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________________ श्री सम्यक्चारित्र पूजन रत्नत्रय विधान दर्शविशुद्धि आदि भावना सोलह भाऊँ भलीप्रकार । दशलक्षण की भव्यभावना दस भाऊँ होऊँ अविकार ।।३।। अनशनादि तप की द्वादशभावना हृदय में प्रभु लाऊँ। अनित्यादि की प्रभु द्वादश वैराग्यभावनाएँ भाऊँ।।४।। ध्यानभावना सोलह भाऊँ तत्त्वभावना भाऊँ सात। रत्नत्रय की तीनभावना दर्शनज्ञानचरित्र सुख्यात ।।५।। अनेकान्त की एकभावना श्रुतभावना एक विख्यात। इक शुद्धात्मभावना भाऊँ इक निग्रंथभावना ख्यात ।।६।। द्रव्यभावना एक विविध विधि भाऊँ त्यागं भवभ्रम नेष्ठ। ये ही एकशतकपच्चीस भावनाएँ भाऊँ नित श्रेष्ठ ।।७।। इसप्रकार निर्मल होकर प्रभु निज अनुभव रसपान करूँ। रत्नत्रय की परमभक्ति पा शाश्वतपद निर्वाण वरूँ।।८।। ॐ ह्रीं श्री एकशतकपच्चीसभावनासहितसम्यकचारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (वीरछंद) तेरहविध चारित्र धार मुनि मन में लाते रंच न खेद। अंतरंगतप छहप्रकार का तथा बाह्यतप के छह भेद ।।१।। प्रायश्चित्त विनय वैय्यावृत स्वाध्याय व्युत्सर्ग स्वध्यान। छहप्रकार का अंतरंगतप धारण करते साधु महान ।।२।। अनशन अवमौदर्य तथा व्रत परिसंख्यान तथा रसत्याग। कायक्लेश अरुविविक्तशय्यासन येबाह्य सुतप अनुराग ।।३।। इनको पालन करने वाले महासंयमी हैं मुनिराज । अट्ठाईस मूलगुणधारी मुनि बनते निजहित के काज ।।४।। ग्यारहअंग पूर्व चौदह के पाठी उपाध्याय मुनि ईश। अट्ठाईस मूलगुण शोभित उपाध्याय के गण पच्चीस ।।५।। जिनआगम का पठन कराते हैं संघस्थ सुमुनियों को। आगम का रहस्य बतलाते सहजभाव से गुणियों को।।६।। अट्ठाईस मूलगुण शोभित आचार्यों के गुण छत्तीस। साधुसंग के संचालक हैं सर्वसाधुओं के हैं ईश ।।७।। द्वादशतप दशधर्म तथा षट्आवश्यकयत पंचाचार। तीनगुप्तियुत करुणाधारी देते हैं दीक्षा अनगार।।८।। छयालीस गुणधारी अरहन्तों को सब वन्दन करते। अष्टगुणों के स्वामी सिद्धों का नित अभिनन्दन करते।।९।। दोषअठारह रहित केवली को करते हैं नित्य प्रणाम । शुद्ध आत्मा ध्याते ध्याते पा लेते हैं निज ध्रुवधाम ।।१०।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, पाऊँ पद निर्वाण। पा सम्यक्चारित्र उर, होऊँ महान ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला (वीर) पहला आर्तध्यान है दूजा रौद्रध्यान है भवदुःखकार । तीजा धर्मध्यान अरु चौथा शुक्लध्यान शिवसुखदातार ॥१॥ इनके चार-चार भेद हैं सब मिल सोलह जानो आप। इनको जाने बिना न होता निर्मल आत्मतत्त्व का जाप ।।२।। आर्तध्यान है चार भाँति का इष्टवियोग अनिष्टसंयोग। तीजा पीड़ाचिन्तन जाने चौथा है निदान दुखरोग ।।३।। यह प्रशस्त भी होता है अरु अप्रशस्त भी होता है। यही अन्ततोगत्वा पूरा भवदुःखदायी होता है ।।४।। रौद्रध्यान भी चार भाँति है जो है घोर महादुःख कंद। हिंसानंदी मषानंदि अरु चौर्यानंद परिग्रहानंद ।।५।। चारों घोरनरक दुःखदाता इन्हें न आने दो तुम पास । रौद्रध्यान से बचोसदा ही जिन आगम का कर अभ्यास ।।६।। धर्मध्यान के चार भेद हैं स्वर्गादिक साता दाता। सम्यग्दर्शन पाए बिन यह ध्यान नहीं उर में आता ।।७।। आज्ञाविचय अपायविचय विपाकविचय संस्थानविचय। चौथे से पंचम षष्टम सप्तम तक होता है निर्भय ।।८।।
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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