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________________ रत्नत्रय विधान श्री वात्सल्य अंग पूजन मंदरगिरि विद्यन्मालीगिरि पर निज अर्घ्य बनाऊँ। पदवी अनर्थ्य प्रगटाऊँ चैतन्यचंद्रिका पाऊँ ।। संसार भार को क्षयकर निरूपम ध्रुव सौख्य सजाऊँ। वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ।।९।। ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (मानव ) शिवसुख कारण स्वधर्म में वात्सल्यभाव हो निरुपम । साधर्मी तथा अहिंसा में परमप्रीति हो अनुपम ।।१।। धर्मात्मा जन के प्रति मैं वात्सल्य अटूट जगाऊँ। जिनधर्म प्रभाव हेतु मैं हर्षित हो ज्ञान बढ़ाऊँ ।।२।। सच्ची प्रभावना के हित तन मन धन कर न्यौछावर । अपने स्वरूप के प्रति मैं वात्सल्यभाव उर लाऊँ।।३।। श्रावक मुनिजन की सेवा कर जीवन सफल करूँगा। अज्ञानी जन को निश्चित प्रतिबुद्ध करूँ सुख पाऊँ ।।४।। निज अन्तरंग को निर्मल कर उर वत्सलता लाऊँ। सारे प्राणी सुख पाएँ यह नित्य भावना भाऊँ।।५।। निश्चय वात्सल्य सुमुनि के चरणों में वन्दन करके। वात्सल्यशक्ति से हे प्रभु जय अवात्सल्य पर पाऊँ ।।६।। श्रावक श्राविका आर्यिका मुनियों के प्रति हो आदर । सत्यार्थ भाव से सबकी सेवा करके हर्षाऊँ ।।७।। रागादि बहिर्भावों से मैं प्रीत सदा को तोहूँ। शुद्धात्म शुद्धभावों से दृढ़ प्रीत करूँ सुख पाऊँ ।।८।। ऋषि मुनि गणधर गाते हैं वात्सल्य अंग की महिमा । मैं भी प्रभु पूर्ण पालकर समकित की गरिमा पाऊँ ।।९।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, पाऊँ ज्ञान उमंग। सुदृढ़ करूँ उर मध्य मैं, वात्सल्य का अंग ।। ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (ताटंक) समकित की हरियाली जब निज अंतर में लहराती है। शुष्क हृदय में परम ज्ञान की निर्मल ऊर्जा आती है।।१।। हृदय प्रफुल्लित हो जाता है जिन ध्वनि मेंहदी रचती है। स्वभाव परिणति हर्षित होती प्रतिक्षण छमछम नचती है ।।२।। जप तप संयम बीन बजाते शुक्लध्यान गाता है गीत। यथाख्यात निज रस बरसाता त्वरित मोह लेता है जीत ।।३।। जब उठती है पूर्ण अनंत चतुष्टय की महिमामय प्रीत । मुक्तिप्रिया भी पा लेती है अद्भुत ध्रुव निज चेतन मीत ।।४।। कोटि-कोटि सुर दुन्दुभियाँ बजती मृदुस्वर में भाव विभोर । परिणय करके जाता चेतन त्रिलोकण सिंहासन ओर ।।५।। स्वागत करते सभी सिद्ध चिर परिचित निर्मल चेतन का। जय जय घोष गूंजता नभ में त्रिभुवन पति आनंदघन का ।।६।। वात्सल्य की पावन महिमा मंगलमय हितकारी है। सादि अनंतानंत काल तक भविजन को सुखकारी है।।७।। ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) उत्तम अंग वात्सल्य की पूजन कर जागा उत्साह । आत्मा के प्रति वात्सल्य का भाव हृदय में जगा अथाह।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
SR No.008373
Book TitleRatnatray mandal Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2005
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size280 KB
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