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रत्नत्रय विधान
निःकांक्षितज्योति जगाऊँ। इच्छाओं पर जय पाऊँ।।
प्रभु पूर्ण अनिच्छुक बनकर । मोहाग्नि बुझाऊँ जिनवर ।।६।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षितांगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
निःकांक्षितधूप चढ़ाऊँ। इच्छा विरहित हो जाऊँ।।
प्रभु पूर्ण अनिच्छुक बनकर । कर्माग्नि बुझाऊँ जिनवर ।।७।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षितांगाय अष्टकर्मविध्वसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
निःकांक्षिततरूफल लाऊँ। इच्छा विरहित हो जाऊँ।।
प्रभु पूर्ण अनिच्छुक बनकर । फल सहज मोक्ष लूँ जिनवर ।।८।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षितांगाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नि:कांक्षितअर्घ्य बनाऊँ। इच्छा विरहित हो जाऊँ ।।
प्रभु पूर्ण अनिच्छुक बनकर । पदवी अनर्घ्य लूँ जिनवर ।।९।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षितांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
अविलि १. इहलोकसुखवाञ्छा रहित
(गीतिका) इहलोकसुख की वाञ्छा के लोभ से स्वामी बचूँ। पंचइन्द्रिय विनश्वर सुख की न इच्छा उर रचूँ ।। अंग निःकांक्षित सदा पालूँ प्रभो मैं चाव से।
पूर्ण समकित प्राप्त करके जुहू आत्मस्वभाव से ।। ॐ ह्रीं श्री इहलोकसुखवाञ्छारहितनिःकांक्षितांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
२. परलोकसुखवाञ्छा रहित परलोकसुख की वाञ्छा के दोष से हे प्रभु बचूँ। विनश्वर साता विभावी की न छवि उर में रचूँ ।। अंग निःकांक्षित सदा पालूँ प्रभो मैं चाव से।
पूर्ण समकित प्राप्त करके जुई आत्मस्वभाव से ।। ॐ ह्रीं श्री परलोकसुखवाञ्छारहितनिःकांक्षितांगाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
३. भोगआकांक्षा रहित भोग भोगे हैं अनन्तों और पाये बहुत दुःख। भोगआकांक्षा तजूं प्रभु प्राप्त हो निज आत्मसुख ।।
श्री नि:कांक्षित अंग पूजन
अंग निःकांक्षित सदा पालुं प्रभो मैं चाव से।
पूर्ण समकित प्राप्त करके जुहूं आत्मस्वभाव से ।। ॐ ह्रीं श्री भोगकांक्षारहितनिःकांक्षितांगाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
४. उपभोगआकांक्षा रहित उपभोग-आकांक्षा सदा से महादःख देती रही। किन्तु यह उपभोग इच्छा निज अन्तर से ना गई ।। अंग नि:कांक्षित सदा पालुं प्रभो मैं चाव से।
पूर्ण समकित प्राप्त करके जुइँ आत्मस्वभाव से ।। ॐ ह्रीं श्री उपभोगकांक्षारहितनिःकांक्षितांगाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
महार्घ्य
(वीर) परद्रव्यों में रागरूप इच्छा-अभाव नि:कांक्षित अंग। आत्मद्रव्य में ही रहता है निर्मल शुद्धभाव के संग ।।१।। सर्ववांछाओं से विरहित सम्यग्दष्टि ही निष्कांक्षी। कर्मफलों की रंच न वांछा ज्ञातादृष्टा है निष्कांक्षी ।।२।। धर्मधार सांसारिक सुख की इच्छा का है यदि सद्भाव ।
तो निश्चित सम्यक्त्व नहीं है नि:कांक्षा का जहाँ अभाव ।।३।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षितांगायअनर्थ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(ताटक) पहले दूजे तीजे में तो प्रतिमा होती कभी नहीं। चौथे गणस्थान अविरति में भी प्रतिमा का भाव नहीं ।।१।। पहली प्रतिमा लेते ही होता है गणस्थान पंचम। ग्यारहवीं प्रतिमा तक कहलाता है एकदेशसंयम ।।२।। पूर्ण देशसंयम लेते ही गुणस्थान होता सप्तम।। फिर यह निर्बलता के कारण पाता गुणस्थान षष्टम ।।३।। इन दोनों में झूला करता जब तक श्रेणी चढ़े नहीं। निज परिणामों की सम्हाल बिन कोई आगे बढ़े नहीं ।।४।। फिर यह अष्टम में जाता है झट उपशमश्रेणी पाता। नवम दशम ग्यारहवाँ पाता ग्यारहवें से गिर जाता ।।५।।
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