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रक्षाबंधन और दीपावली समझते देर न लगी कि कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया है। यह साधारण अपराध नहीं है; क्योंकि इतना चिंतित तो मैंने आचार्यश्री को कभी नहीं देखा । तब वे खुद ही बोले कि इस अक्षम्य अपराध के लिए आचार्यश्री मुझे जो भी दण्ड दें; मैं उसे स्वीकार करने के लिए नतमस्तक हूँ। ____ तो आचार्यश्री ने जवाब दिया - "श्रुतसागर! सवाल दण्ड का या प्रायश्चित्त का नहीं है; सवाल संघ की सुरक्षा का है। ___ मुझे इस बात की चिन्ता नहीं कि मैं तुम्हें दण्ड दूंगा तो तुम मानोगे कि नहीं मानोगे या तुम उद्दण्डता पर उतर आओगे और एक नया संघ बना लोगे, तोड़-फोड़ करके स्वयं आचार्य बन जाओगे।
यह तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मैं जो भी दण्ड दूंगा, वह तुम स्वीकार करोगे । मेरी चिन्ता का विषय यह नहीं है। मेरी चिन्ता का विषय संघ की सुरक्षा है; क्योंकि कि अब संघ पर कोई महासंकट आनेवाला है।
वे लोग आयेंगे और कोई न कोई उपसर्ग संघ पर अवश्य करेंगे।"
श्रुतसागर बुद्धिमान तो थे ही, आखिर वे श्रुतसागर थे। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि अकम्पनाचार्य ने उनकी प्रतिभा को देखकर उन्हें श्रुतसागर नाम की उपाधि दी होगी, नाम कुछ और रहा होगा उनका। __ वे कहते हैं कि मैं वहीं जाऊँगा और मैं वहीं खड़ा रहूँगा, वहीं आत्मध्यान करूँगा; क्योंकि वे मंत्री उसपर्ग करने के लिए उसी रास्ते से आयेंगे और रास्ते में उन्हें मैं सहज ही मिल जाऊँगा । यदि उन्हें उनका असली प्रतिद्वन्दी मिल गया तो जो कुछ होगा वहीं होगा, संघ सुरक्षित रहेगा।
यह उनका स्वयं का प्रस्ताव था। आचार्यदेव ने उन्हें यह आज्ञा नहीं दी थी कि तुम वहाँ जाकर खड़े रहो।
मेरे चित्त को यह स्वीकार नहीं हुआ कि अकम्पनाचार्य जैसे दयावान आचार्य यह जानते हुए कि वे जान भी ले सकते हैं, श्रुतसागर को इतना कठोर दण्ड दें कि जाओ बेटा, तुम अकेले ही मरो। तुम्हारे पीछे
रक्षाबंधन हम सब नहीं मरेंगे। तुम वहीं खड़े रहो। तुमने गलती की, तुम ही मरो, हम सब नहीं मरेंगे।
आचार्यश्री सोचते हैं कि श्रुतसागर को तो मैंने घड़े जैसा घडा है। ऐसे श्रुतसागर को मैं मरने के लिए वहाँ कैसे छोड़ दूँ ? श्रुतसागर ऐसे ही तैयार नहीं होते । सातसौ शिष्यों पर मेहनत की तो एक श्रुतसागर तैयार हुआ है। ___ अरे भाई ! प्रतिभाशाली विद्यार्थी हो तो भी उसे विद्वान बनाने में
खून-पसीना एक करना पड़ता है; उसपर वर्षों मेहनत करनी पड़ती है। तब जाकर वह उच्चकोटि का विद्वान बनता है।
आचार्यश्री ने कहा कि “मैं ऐसी आज्ञा नहीं दे सकता, मैं अनुमति भी नहीं दे सकता।" __ श्रुतसागर बोले - “आचार्यश्री ! न तो आज्ञा का सवाल है और न अनुमति का। इसके अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। एक ही रास्ता है।" - ऐसा कहकर श्रुतसागर वहाँ से चल दिये।
आचार्यश्री ने हाँ या ना की ही नहीं, लेकिन श्रुतसागर की समझ में आ गया कि इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। आचार्यश्री तो कहेंगे ही नहीं - यह सोचकर वे चल दिये।
मेरा कहना यह है कि अपराध का बोध उन्हें स्वयं ही हुआ।
पाठकों की जिज्ञासा शान्त करने के लिये 'अक्षम्य अपराध' नामक कहानी इस आलेख के तत्काल बाद ही दी जा रही है।
मैं कहना यह चाहता हूँ कि विष्णुकुमार भी स्वयं अपनी गलती मानते थे, तभी तो उन्होंने दीक्षाच्छेद किया था; श्रुतसागर भी स्वयं अपनी गलती मानते थे, तभी तो प्रायश्चित्त लिया।
जिन कार्यों को वे स्वयं अपनी गलतियाँ मानते थे; उन कार्यों को ही हमने उनके सबसे बड़े गुणों के रूप में स्वीकार कर लिया। जो
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