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________________ रक्षाबंधन और दीपावली उनके नियमित श्रोता रहे हैं। एक दिन भी ऐसा नहीं जाता था कि जब उनकी दिव्यध्वनि सुनने के लिए उपस्थित नहीं रहते थे। धंधा-पानी सबकुछ छोड़कर उनके ही हो गये थे। धन्य थी वह तेरस जिस दिन आपने उनका अंतिम व्याख्यान सुना था और जिसे आज इन लक्ष्मी के पुजारियों ने धनतेरस बना लिया है। इस दिन लोग कुछ न कुछ धन-सम्पत्ति अवश्य खरीदते हैं। हीरे-जवाहरात, सोने-चांदी के आभूषण; कुछ भी संभव न हो तो कुछ बर्तन ही खरीद लेते हैं। ___ हाँ, तो धन्य थी वह तेरस, जब आपने उनका अन्तिम प्रवचन सुना था; पर चतुर्दशी के दिन आपको उनके मात्र दर्शन ही मिले थे, प्रवचन सुनने को नहीं मिला था। इसीकारण उक्त चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी कहा जाता है, जरा कल्पना कीजिये कैसा लगा होगा उस दिन आपको। चतुर्दशी के दिन न सही प्रवचन; पर दर्शन तो मिल ही गये थे; किन्तु जब अमावस्या के दिन पहुँचे तो न प्रवचन मिला न दर्शन; क्योंकि अमावस की यह काली रात हमारे महावीर को लील गई थी, उनका निर्वाण हो गया था। ___ अब जरा कल्पना कीजिये कि उस समय आपको कैसा लगा होगा ? क्या आपने उस दिन लड्डु बाँटें होंगे, लड्डु खाये होंगे, पटाखें छोड़े होंगे, एक-दूसरे को मुबारकबाद दी होगी, खाते-वही संभाले होंगे, तराजू-बाँटों की पूजा की होगी ? । नहीं, तो फिर आज यह सब कुछ क्यों ? वस्तुतः बात यह है कि यह सब वैदिक संस्कृति का प्रभाव है। उनके यहाँ तो लंका को जीतकर राम सीता सहित वापिस आये थे; इसकारण यह सबकुछ होता ही था, होना भी चाहिए; किन्तु हमारे आराध्य का तो वियोग हुआ था। क्या संयोग-वियोग का उत्सव एक सा हो सकता है ? दीपावली ३५ पर बात यह है कि बहुमत अल्पमत को प्रभावित करता है। ऐसा ही कुछ इसमें हुआ है। यदि कोई अपने पिता की मृत्यु पर इसीप्रकार नाचे-गाये और खुशियाँ मनाये तो आप क्या कहेंगे ? अरे भाई ! आज तो हमारे परमपिता-धरमपिता भगवान महावीर का वियोग हुआ है। ऐसी स्थिति में यह सब क्या है ? ___ जब हमारे घर में पिताजी की लाश रखी हो और उसे श्मशान ले जाने की तैयारी हो रही हो, उसे श्मशान ले जा रहे हों, जला रहे हों; तब कैसा वातावरण होता है ? इसकी कल्पना तो आपको होगी ही, क्या कहीं ऐसा दृश्य भी देखने में आया है कि जैसा आज दीपावली पर देखने को मिलता है। यदि नहीं तो फिर भगवान महावीर के वियोग के अवसर पर यह सब क्यों हो रहा है ? इस पर लोग कहते हैं कि हमारे पिता की तो मृत्यु होती है और भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था । मृत्यु शोक का कारण है, निर्वाण नहीं। बात तो ठीक है, पर वियोग तो दोनों में ही समान होता है। जब आत्मा एक देह छोड़कर दूसरी देह धारण करता है, तब उसे मरण कहा जाता है और जब देह को छोड़कर विदेह हो जाता है, अनन्त काल तक के लिए विदेह हो जाता है, देह धारण नहीं करता तो उसे निर्वाण कहते हैं। हमारे यहाँ दोनों को ही महोत्सव कहते हैं - निर्वाण महोत्सव और मृत्यु महोत्सव; यदि समाधिमरणपूर्वक हो तो मृत्यु भी एक महोत्सव है; पर यह मृत्युमहोत्सव नाचकर, गाकर, खा-पीकर तो नहीं मनाया जाता; इसमें एक प्रकार की गंभीरता होती है। इस पर लोग कहते हैं कि आखिर आप चाहते क्या हैं ? क्या दीपावली के दिन हम सब लोग रोने बैठ जावें? नहीं, भाई ! रोने बैठने की बात नहीं है क्योंकि हमारे आराध्य श्री (20)
SR No.008372
Book TitleRakshabandhan aur Deepavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size177 KB
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