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________________ रक्षाबंधन और दीपावली दीपावली भगवान महावीर को आज वह सब कुछ प्राप्त हुआ है, जिसके लिए वे अनेक भवों से प्रयत्नशील थे। वे आज अव्याबाध सुखी हो गये थे। आज उन्होंने आठों कर्मों को जीत लिया था; इसलिए यह विजय का पर्व है। इस बात की हमें खुशी भी है; पर इसी खुशी में हँसना-खेलना नहीं है, खाना-पीना नहीं है, आमोद-प्रमोद नहीं है, लक्ष्मी के नाम पर पैसे की पूजा करना नहीं है; इसमें एक सात्विक गंभीरता है; क्योंकि हमारे प्रिय को सबसे बड़ी उपलब्धि हो जाने पर भी हमारे लिए अब वे उपलब्ध नहीं रहे, यह एक महान हितोपदेशी, हितैषी के वियोग का अवसर है। यह बेटी की विदाई जैसा अवसर है; जिसमें खुशी के साथ-साथ आँखें नम रहती हैं, वातावरण में एक विशेष प्रकार की गंभीरता रहती है। बाजे बजते हैं, पर नाच-गाना नहीं होता। जिस बात के लिए हम वर्षों से प्रयास कर रहे थे, जिसके लिए हमने अपना सब कुछ लगा दिया था; आज वह मंगल अवसर आया है कि जब शादी के बाद बेटी सुयोग्य, सुशील वर के साथ विदा हो रही है; इसकारण हमें अपार प्रसन्नता है; पर वह जा रही है, अब वह हमें सदा सहज सुलभ नहीं होगी, कभी-कभार ही मिलना होगा। यदि विदेश जाती हो तो मिलना और भी दुर्लभ होगा। उसीप्रकार हमारे आराध्य को एक बहुत बड़ी सफलता प्राप्त हुई और वे अनन्त काल के लिए मुक्तिपुरी चले गये हैं, अब वे हमें कभी नहीं मिलेंगे - यह सुनिश्चित होने पर खेलना-खाना, बधाई देना कैसे संभव हो सकता है, उछल-कूद कैसे संभव है ? ईद और मुहर्रम का अन्तर तो मुसलमान भी समझते हैं। मुहर्रम के दिन वे छाती पीटते हैं; पर हम तो सब कुछ भूल गये हैं। इस पर कुछ लोग कहते हैं कि अब आप ही बताइये कि आखिर हम दीपावली मनाये कैसे? जिसप्रकार की दीपावली भगवान महावीर के प्रथम शिष्य गौतम गणधर ने मनाई थी; हमें भी उसीप्रकार मनाना चाहिए; क्योंकि भगवान महावीर के बाद हमारे मुख्य मार्गदर्शक वे ही थे। अबतक वे गणधरदेव भगवान महावीर की दिव्यध्वनि छह-छह घड़ी दिन में तीन बार, इसप्रकार कुल मिलाकर १८ घड़ी सुनते थे। २४ मिनिट की एक घड़ी होती है; इसप्रकार वे प्रतिदिन ७ घंटे और १२ मिनिट दिव्यध्वनि सुनते थे। तीस वर्ष में एक दिन भी ऐसा नहीं गया कि जब दिव्यध्वनि के अवसर पर उनकी अनुपस्थिति रही हो। थोड़ा-बहुत स्वाध्याय कर लेने मात्र से कुछ लोग ऐसी बातें करने लगते हैं कि अब हमें जिनवाणी सुनने या पढ़ने की क्या आवश्यकता है, हम तो सब कुछ जानते हैं। उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि अन्तमुहूर्त में द्वादशांग की रचना करने वाले, चार ज्ञान के धारी गणधरदेव भी जब प्रतिदिन ७-७ घंटे जिनवाणी सुनते थे, महावीर की वाणी सुनते थे तो क्या तुम उनसे भी महान हो गये हो? इस पर वह कह सकता है कि अभी महावीर तो हैं नहीं; हम किसकी वाणी सुने ? उनसे हमारा कहना है कि जो महावीर की वाणी सुनाता हो, उससे सुनिये । यदि कोई सुनानेवाला न मिले तो वीतरागता की पोषक जिनवाणी को स्वयं पढ़िये । और जो भी करना हो, करिये; पर जिनवाणी के अध्ययन से विरत न हो; क्योंकि कलियुग में एकमात्र परमशरण जिनवाणी ही है। कुछ लोग कहते हैं कि जब महावीर को निर्वाण हुआ था, उस समय वहाँ गौतम स्वामी नहीं थे। कारण बताते हुए वे कहते हैं कि महावीर को लगा कि मेरा यह प्रियतम शिष्य मेरे वियोग को सहन न कर सकेगा। कुछ अप्रिय घटित न हो जाय - इस आशंका से उन्हें दूर भेज दिया गया था। (21)
SR No.008372
Book TitleRakshabandhan aur Deepavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size177 KB
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