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________________ - - - - - - - - - - - - - - - - स्वकर्म परिणत जीव को निजभाव उपलब्धि नहीं ।।११८।। उत्पाद-व्यय ना प्रतिक्षण उत्पादव्ययमय लोक में। अन-अन्य हैं उत्पाद-व्यय अर अभेद से हैं एक भी ।।११९ ।। स्वभाव से ही अवस्थित संसार में कोई नहीं। संसरण करते जीव की यह क्रिया ही संसार है ।।१२०।। कर्ममल से मलिन जिय पा कर्मयुत परिणाम को। कर्मबंधन में पड़े परिणाम ही बस कर्म है।।१२१।। परिणाम आत्मा और वह ही कही जीवमयी क्रिया। वह क्रिया ही है कर्म जिय द्रवकर्म का कर्ता नहीं ।।१२२।। करम एवं करमफल अर ज्ञानमय यह चेतना। (२८) ------ -- ये तीन इनके रूप में ही परिणमे यह आत्मा ।।१२३।। ज्ञान अर्थविकल्प जो जिय करे वह ही कर्म है। अनेकविध वह कर्म है अर करमफल सुख-दुक्ख हैं ।।१२४।। ज्ञान कर्मरु कर्मफल परिणाम तीन प्रकार हैं। आत्मा परिणाममय परिणाम ही हैं आत्मा ।।१२५।। जो श्रमण निश्चय करे कर्ता करम कर्मरु कर्मफल । ही जीव ना पररूप हो शुद्धात्म उपलब्धि करे ।।१२६।। द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार - द्रव्य जीव अजीव हैं जिय चेतना उपयोगमय । (२८) - - - -- पुद्गलादी अचेतन हैं अत:एव अजीव हैं ।।१२७।। आकाश में जो भाग पुद्गल जीव धर्म अधर्म से। अर काल से समृद्ध है वह लोक शेष अलोक है ।।१२८।। जीव अर पुद्गलमयी इस लोक में परिणमन से। भेद से संघात से उत्पाद-व्यय-ध्रुवभाव हों ।।१२९।। जिन चिह्नों से द्रव ज्ञात हों रे जीव और अजीव में। वे मूर्त और अमूर्त गुण हैं अतद्भावी द्रव्य से ।।१३०।। इन्द्रियों से ग्राह्य बहुविधि मूर्त गुण पुद्गलमयी। अमूर्त हैं जो द्रव्य उनके गुण अमूर्त्तिक जानना ।।१३१।। सूक्ष्म से पृथ्वी तलक सब पुद्गलों में जो रहें। (३०) -------- स्पर्श रस गंध वर्ण गुण अर शब्द सब पर्याय हैं।।१३२।। आकाश का अवगाह धर्माधर्म के गमनागमन । स्थानकारणता कहे ये सभी जिनवरदेव ने ।।१३३।। उपयोग आतमराम का अर वर्तना गुण काल का। है अमूर्त द्रव्यों के गुणों का कथन यह संक्षेप में।।१३४।। युगलम् ।। । हैं बहुप्रदेशी जीव पुद्गल गगन धर्माधर्म सब। है अप्रदेशी काल जिनवरदेव के हैं ये वचन ।।१३५।। । कालद्रव को छोड़कर अवशेष अस्तिकाय हैं। बहुप्रदेशीपना ही है काय जिनवर ने कहा ।।११।। गगन लोकालोक में अर लोक धर्माधर्म से। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ११ - - - - - - - - - - ------___(२९) _ (३१)
SR No.008371
Book TitlePravachansara Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size160 KB
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