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________________ मूल का न छेद हो इस तरह अपने योग्य ही। वृद्ध बालक श्रान्त रोगी आचरण धारण करें।।२३०।। श्रमण श्रम क्षमता उपधि लख देश एवं काल को। जानकर वर्तन करें तो अल्पलेपी जानिये ।।२३१।। मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं। भतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है।।२३२।। जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्व-पर को नहिं जानते। वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते ।।२३३।। साधु आगमचक्षु इन्द्रियचक्षु तो सब लोक है। देव अवधिचक्षु अर सर्वात्मचक्षु सिद्ध हैं।।२३४।। -------- (५६)___-------- अनारंभी त्याग विषयविरक्त और कषायक्षय । ही तपोधन संत का सम्पूर्णतः संयम कहा ।।३५।।' तीन गुप्ति पाँच समिति सहित पंचेद्रियजयी। ज्ञानदर्शनमय श्रमण ही जितकषायी संयमी ।।२४०।। कांच-कंचन बन्धु-अरि सुख-दुःख प्रशंसा-निन्द में। शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में ।।२४१।। ज्ञानदर्शनचरण में युगपत सदा आरूढ़ हो। एकाग्रता को प्राप्त यति श्रामण्य से परिपूर्ण हैं।।२४२।। अज्ञानि परद्रव्याश्रयी हो मुग्ध राग-द्वेषमय। जो श्रमण वह ही बाँधता है विविध विध के कर्म सब ।।२४३।। मोहित न हो जो लोक में अर राग-द्वेष नहीं करें। --------------------- वे श्रमण ही नियम से क्षय करें विध-विध कर्म सब ।।२४४।। शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार शुद्धोपयोगी श्रमण हैं शुभोपयोगी भी श्रमण। शद्धोपयोगी निरास्रव हैं आस्रवी हैं शेष सब ।।२४५।। वात्सल्य प्रवचनरतों में अर भक्ति अर्हत आदि में। बस यही चर्या श्रमणजन की कही शुभ उपयोग है।।२४६।। श्रमणजन के प्रति बंदन नमन एवं अनुगमन । विनय श्रमपरिहार निन्दित नहीं हैं जिनमार्ग में।।२४७।। उपदेश दर्शन-ज्ञान-पूजन शिष्यजन का परिग्रहण। और पोषण ये सभी हैं रागियों के आचरण ।।२४८।। तनविराधन रहित कोई श्रमण पर उपकार में। नित लगा हो तो जानना है राग की ही मुख्यता ।।२४९।। जिन-आगमों से सिद्ध हों सब अर्थ गुण-पर्यय सहित । जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधे स्वहित ।।२३५।। जिनागम अनुसार जिनकी दृष्टि न वे असंयमी। यह जिनागम का कथन है वे श्रमण कैसे हो सकें।।२३६।। जिनागम से अर्थ का श्रद्धान ना सिद्धि नहीं। श्रद्धान हो पर असंयत निर्वाण को पाता नहीं ।।२३७।। विज्ञ तीनों गुप्ति से क्षय करें स्वासोच्छ्वास में । ना अज्ञ उतने कर्म नाशे भव हजार करोड़ में ||२३८॥ देहादि में अणुमात्र मूंज रहे यदि तो नियम से। वह सर्व आगम धर भले हो सिद्धि वह पाता नहीं ।।२३९।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ३५ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - ---------(५९) - - - -
SR No.008371
Book TitlePravachansara Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size160 KB
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