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लोक अर परलोक से निरपेक्ष है जब यह धरम । पृथक् से तब क्यों कहा है नारियों के लिंग को ।।२०।। नारियों को उसी भव में मोक्ष होता ही नहीं। आवरणयुत लिंग उनको इसलिए ही कहा है।।२१।। प्रकृतिजन्य प्रमादमय होती है उनकी परिणति । प्रमादबहला नारियों को इसलिए प्रमदा कहा ।।२२।।' नारियों के हृदय में हों मोह द्वेष भय घृणा । माया अनेकप्रकार की बस इसलिए निर्वाण ना ।।२३।। एक भी है दोष ना जो नारियों में नहीं हो।
अंग भी ना ढके हैं अतएव आवरणी कही ।।२४।।. •आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा २२-२६
रतनत्रय का नाश ही है भंग जिनवर ने कहा। भंगयुत हो श्रमण तो सल्लेखना के योग्य ना ।।३०।।' जन्मते शिशुसम नगन तन विनय अर गुरु के वचन । आगम पठन हैं उपकरण जिनमार्ग का ऐसा कथन ||२२५।। इहलोक से निरपेक्ष यति परलोक से प्रतिबद्ध ना। अर कषायों से रहित युक्ताहार और विहार में ।।२२६।। चार विकथा कषायें अर इन्द्रियों के विषय में। रत श्रमण निद्रा-नेह में परमत्त होता है श्रमण ।।३।। अरे भिक्षा मुनिवरों की ऐसणा से रहित हो। वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ।।२२७।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ३१
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चित्त चंचल शिथिल तन अर रक्त आवे अचानक।
और उनके सूक्ष्म मानव सदा ही उत्पन्न हों ।।२५।।' योनि नाभि काँख एवं स्तनों के मध्य में। सूक्ष्म जिय उत्पन्न होते रहें उनके नित्य ही ।।२६।। अरे दर्शन शुद्ध हो अर सूत्र अध्ययन भी करें। घोर चारित्र आचरे पर ना नारियों के निर्जरा ।।२७।।. इसलिए उनके लिंग को बस सपट ही जिनवर कहा। कलरूप वययुत विज्ञ श्रमणी कही जाती आर्यिका ।।२८।। त्रिवर्णी नीरोग तप के योग्य वय से युक्त हों।
सुमुख निन्दा रहित नर ही दीक्षा के योग्य हैं ।।२९।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा २७-३०
तनमात्र ही है परिग्रह ममता नहीं है देह में। श्रृंगार बिन शक्ति छुपाये बिना तप में जोड़ते।।२२८।। इकबार भिक्षाचरण से जैसा मिले मधु-मांस बिन । अधपेट दिन में लें श्रमण बस यही युक्ताहार है।।२२९।। पकते हुए अर पके कच्चे माँस में उस जाति के। सदा ही उत्पन्न होते हैं निगोदी जीव वस ॥३२॥ जो पके कच्चे माँस को खावें छुयें वे नारि-नर । जीवजन्तु करोड़ों को मारते हैं निरन्तर ।।३३॥ जिनागम अविरुद्ध जो आहार होवे हस्तगत । नहीं देवे दूसरों को दे तो प्रायश्चित योग्य है|३४|| • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ३२-३४
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