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प्रवचनसार का सार इसीप्रकार प्रवचनसार ग्रन्थ सरकार जैसे आशयवाला है। वह प्राकृतिक वस्तुस्थिति का प्रतिपादक है। जो द्रव्य-गुण-पर्याय हमारी सीमा के भीतर हैं; उन्हें वह अपना कहता है; परन्तु अध्यात्म का प्रतिपादक समयसार कहता है कि हममें ही उत्पन्न होनेवाला राग भी हमारा नहीं है; क्योंकि वह दुखरूप है, दुख देनेवाला है।
यद्यपि निश्चय से राग-द्वेषादि भाव ही हिंसा हैं, तथापि व्यवहार से प्राणियों का घात भी हिंसा ही है।
प्रश्न - प्राणियों का घात तो व्यवहार से ही हिंसा है और व्यवहार तो असत्यार्थ है।
उत्तर - जो भी हो; पर प्राणियों का घात करनेवाले नियम से नरकादि गति को प्राप्त होंगे; अत: यदि नरक में नहीं जाना है तो व्यवहार हिंसा को भी छोड़ देना चाहिए।
यद्यपि हम किसी जीव को सुखी-दुःखी नहीं कर सकते हैं; वे उनके पुण्य-पाप के उदय के अनुसार ही सुखी-दु:खी होते हैं। यही परमसत्य है; तथापि इसके बहाने यदि कोई अपनी प्रमादचर्या को कायम रखना चाहता है तो यह भी परमसत्य है कि इसके फल में नरक गमन होता है।
लोग ऐसा भी कहते हैं कि ज्ञायक तो ज्ञायक को ही जानता है, पर को नहीं। इसके उत्तर में ऐसा प्रश्न किया जाता है कि ज्ञायक से भिन्न ऐसा कौन-सा दूसरा ज्ञायक है, जिसको ज्ञायक जानता है ? यदि ज्ञायक एक ही है तो उसमें अंश-अंशीरूप भेद करने से क्या लाभ ?
इसप्रकार एक अध्यात्म का और दूसरा सिद्धान्त का सत्य है। अध्यात्म का सत्य अर्थात् समयसार का सत्य एवं सिद्धान्त का सत्य अर्थात् प्रवचनसार का सत्य।
यदि इन दोनों सत्यों को आमने-सामने किया जाय तो कौन शक्तिशाली सिद्ध होगा; वस्तुस्वरूप की कसौटी पर कौन खरा उतरेगा? सरकार किसे मान्यता देगी, जिस पुत्र को इसने अपना माना है, उसे अथवा जो इसके निमित्त से पत्नी के उदर से उत्पन्न हुआ है, उसे ?
बारहवाँ प्रवचन
जब यह प्रश्न उपस्थित होगा कि राग आत्मा का है या पुद्गल का? तब प्रवचनसार यह कहेगा कि राग आत्मा का है और समयसार कहेगा कि राग पुद्गल का है। जब दोनों पक्ष न्यायालय में जाएँगे तो फैसला किसके पक्ष में जाएगा?
प्रवचनसार का कथन वस्तुस्वरूप के आधार से किया गया कथन है और समयसार का कथन अपने प्रयोजन के सिद्धि की दृष्टि से किया गया कथन है।
किसी को कैन्सर हो गया है और वह अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। वह व्यक्ति छह माह के भीतर ही मर जायेगा। डॉक्टर का यह कहना वस्तुस्वरूप का कथन है।
और 'कोई चिन्ता की बात नहीं है, बिल्कुल ठीक हो जाओगे।' ऐसा आश्वासन इसलिए दिया जाता है कि उसे यह सुनकर हार्ट-अटैक न हो जावे, कम से कम वह कैन्सर से ही मरे, हार्ट अटैक होकर न मर जाएँ। यह कथन इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए किया गया कथन है।
यह सिद्धान्त और अध्यात्म की दृष्टि का अंतर है।
जैनेतर दर्शनों में कुछ दर्शन ऐसे हैं; जो कहते हैं कि सारा जगत मिलकर एक ही है और वह ज्ञायक ही है, वह चिद्विवर्त है; इनमें ब्रह्माद्वैत, ज्ञानाद्वैत एवं विज्ञानाद्वैत समाविष्ट हैं।
'सर्वं वै खल्विदं ब्रह्मनेह नानास्ति किञ्चनः।' सम्पूर्ण जगत ब्रह्ममय है। 'सियाराममय सब जग जानी।' उन दर्शनों का आशय यह है कि हमें जो कुछ भी दिखाई दे रहा है; वह सब वस्तुतः कुछ भी नहीं है। यह सब हमारी ज्ञान की ही रचना है। इसमें जो कच्चा माल है, वह पुद्गल का नहीं है; वह हमारे ज्ञान का लगा हुआ है।
इसप्रकार अद्वैतवादी सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय मानते हैं। वे कहते हैं कि वस्तुत: कुछ है ही नहीं, हमें जो दिखाई दे रहा है; वह सब माया ही है, भ्रम ही है। वे ऐसा मानते हैं कि यह भ्रम सब ज्ञान की ही पर्याय में
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