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बारहवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनमहाधिकार में सामान्य ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार की चर्चा चल रही है। इसमें वस्तु के सामान्य स्वरूप की चर्चा स्वरूपास्तित्व को इकाई मानकर की गई है।
भारतीय मुद्रा की इकाई रुपया है। पचास पैसे के सिक्के पर १/२ रुपये लिखा रहता है। पच्चीस पैसे के सिक्के पर १/४ रुपये, दस पैसे के सिक्के पर १/१० रुपये लिखा रहता है। इसका आशय यह है कि भारतीय मुद्रा में पैसे नामक कोई इकाई नहीं है, वह रुपये के अन्तर्गत भेद है और रुपया एक यूनिट है, इकाई है। इसीप्रकार गुणपर्यायात्मक वस्तु जैनदर्शन की इकाई (यूनिट) है।
उसमें जो अनंत गुण, असंख्य प्रदेश और अनंतानंत पर्यायें हैं; वे सब उसके अंतर्गत भेद हैं। इसके अतिरिक्त इससे भिन्न जो भी हैं, वे सब उसके लिए परद्रव्य हैं।
जैनदर्शन में पर के साथ जो संबंध की चर्चा होती है; उसे असद्भूत कहा जाता है; क्योंकि वह असद्भूतव्यवहारनय का विषय है। उसे ऐसा इसलिए कहा जाता है; क्योंकि वह वास्तविक नहीं है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कभी होता ही नहीं है।
वस्तु के भीतर जो भेद करके समझाया जाता है, उसे सद्भूत कहते हैं; क्योंकि वह भेद वस्तु में है, वह काल्पनिक नहीं है।
आत्मा के जो अनंतगुण हैं; वे वास्तविक हैं, काल्पनिक नहीं। अत: इनका नाम सद्भूत है; परन्तु भेद के लक्ष्य से विकल्प की उत्पत्ति होती है तथा आत्मा का कल्याण निर्विकल्प आत्मा की अनुभूति में है; इसलिए उसको भी व्यवहार कहकर हेय कहा गया है।
इसप्रकार हमें यह समझ लेना चाहिए कि पर के साथ संबंध बताने वाला व्यवहार असद्भूत है और अपने में ही भेद करनेवाला व्यवहार सद्भूत है।
बारहवाँ प्रवचन
लोक में पिता-पुत्र के संबंध की मर्यादा यह है कि जो जिस मातापिता से उत्पन्न हुआ है, वह उनका पुत्र है और उस पुत्र के वे मातापिता हैं। यह नियम सरकार एवं समाज द्वारा मान्य है।
हमने माता-पिता को चुना नहीं है और हमें भी माता-पिता ने नहीं चुना है। हमारा माता-पिता के साथ जो संबंध है, वह प्रकृतिप्रदत्त ही है। उसमें किसी ने बुद्धिपूर्वक कुछ भी नहीं किया है।
यदि आप अपनी सम्पत्ति किसी को दिये बिना मर जाएँ, किसी के नाम बिना लिखे मर जावे तो सरकार आपकी सम्पूर्ण सम्पत्ति अनेक तकलीफें देनेवाले आपके पुत्र को ही सौंप देगी। जिस पड़ोसी के बेटे ने आपकी दिन-रात सेवा की है; उसे कुछ भी नहीं मिलेगा।
भारतीय कानून प्राकृतिक व्यवस्था पर आधारित है।
दूसरी बात यह है कि कई व्यक्ति कहते हैं कि भाई! जो हमारी सेवा करे, वही हमारा है। जिसे हम अपना माने, वह हमारा बेटा है; पैदा होने मात्र से क्या होता है, वह तो एक क्षणिक विकार था; सो हो गया। ___मुनिराजों का भी माता-पिता और पुत्रादिक से लौकिक संबंध है, प्रकृतिप्रदत्त संबंध है, सरकार को मान्य संबंध है; परन्तु मुनिराजों का राग अपने गुरु तथा शिष्यों तक ही सीमित होता है।
वे आत्मा का ध्यान छोड़कर भी शिष्यों को पढ़ाते हैं, वे अपने गुरु की सेवा करते हैं; परंतु वे अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री के लिए कुछ भी नहीं करते हैं। मुनिराजों को अपने माता-पिता को उपदेश देने के लिए जाने का भी विकल्प नहीं आता, उन्हें समाधिमरण करवाने का भी विकल्प नहीं आता।
जिनसे प्राकृतिक संबंध था - ऐसे पुत्रों के लिए वे कुछ भी नहीं करते हैं और शिष्यों के लिए वे प्रतिदिन घंटों पढ़ाते हैं।
इसप्रकार मुनिराजों ने प्राकृतिक संबंधों से इन्कार कर दिया एवं जिनसे कोई संबंध नहीं था, जान-पहिचान भी नहीं थी; उन गुरु व शिष्यों से संबंध जोड़ लिया।
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