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प्रवचनसार का सार
उत्पन्न नहीं होती है।
जैसे किसी ने गाली दी। उस गाली का ज्ञान मुझे हुआ; उससे मुझे कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। यदि कोई बाधा उत्पन्न होती है तो वह ज्ञानस्वभाव नहीं है। यह जानने का दोष नहीं है, यह कोई दूसरा ही दोष है । मुझमें जो राग-द्वेष हैं, उनके कारण मुझे बाधा उत्पन्न हुई है न कि ज्ञान के कारण ।
केवली भगवान में तो राग-द्वेष हैं नहीं; इसलिए उन्हें कोई बाधा होनेवाली नहीं है। उन्हें कोई गालियाँ सुनाए तो भी कुछ बाधा नहीं होनेवाली है; क्योंकि वह स्थिति सहजभाव से उनके ज्ञान का ज्ञेय बनकर रह जाएगी। उनकी कितनी ही प्रशंसा करो, कितनी ही भक्ति करो, यह स्थिति भी सहज भाव से उनके ज्ञान का ज्ञेय बनकर रह जाएगी। __ ऐसा वस्तुस्वरूप हमारे हित में ही है। क्योंकि भगवान की हमने जितनी स्तुति के रूप में प्रशंसा की है; अगर उससे वे प्रसन्न या नाराज हो गए तो....।
यहाँ नाराज होने के ही अवसर अधिक हैं, प्रसन्न होने का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता; क्योंकि हमने उनके ऊपर बहुत झूठे आरोप लगाए हैं। 'द्रोपदी को चीर बढ़ायो' 'सीता प्रति कमल रचायो' 'अंजन से किए अकामी, अब मेरी भी बार अबार कर रहे हो।' 'गाय का दूध दुह लिया, नीचे से छुप-छुपे ।' 'महावीर तूने भूत भगा दिए।'- ऐसे न जाने कितने ही आरोप हमने उन पर लगाये हैं। हमने उनकी सही रूप में स्तुति की ही नहीं। अत: उनके प्रसन्न होने का प्रश्न ही नहीं होता; क्योंकि जैसा वे कभी करते नहीं; ऐसी कितनी ही कर्तृत्व की बातें हमने उन पर थोपी हैं। उन पर हमने कर्तृत्व के आरोप लगाए हैं; जबकि वे जानने के अलावा कुछ ही नहीं करते। अच्छा है कि वे इन आरोपों से नाराज नहीं होते और झूठी प्रशंसा से खुश नहीं होते; सच्ची प्रशंसा से भी वे खुश नहीं होते।
तीसरा प्रवचन
इन्द्रियज्ञान के साथ में राग-द्वेष अनिवार्य है। वह राग-द्वेष ज्ञान में आए ज्ञेयों से होता है। अतीन्द्रियज्ञानवालों में राग-द्वेष नहीं है; इसलिए वे पूर्णत: निर्दोष है। संपूर्ण लोकालोक अतीन्द्रियज्ञान में झलकें तो भी उसमें कोई प्रवेश करनेवाला नहीं है। ज्ञान और ज्ञेय दोनों अपनी-अपनी जगह ही रहते हैं।
१९६१-६२ में जब मेरा अपेन्डिक्स का ऑपरेशन हुआ था, तब भोपाल के झरने के मंदिर में बैठकर मैंने ज्ञानस्वभाव के बारे में एक दोहा लिखा था। उसकी भाषा तो अच्छी नहीं है; लेकिन भाव बहुत बढ़िया है
ज्ञान न ज्ञेयों में घुसे, ज्ञेय न ज्ञान के मांहि ।
कमल विकासी सूर्य है सूर्य कमल तो नांहि ।। ज्ञान ज्ञेयों में प्रवेश नहीं करता है और ज्ञेय ज्ञान में प्रवेश नहीं करते हैं। सूर्य से कमल खिलता है; पर सूर्य कमल तो नहीं हो जाता।
यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि ज्ञान और ज्ञेय सूर्य और कमल के समान परस्पर इतने दूर हैं कि कोई किसी का कुछ कर ही नहीं सकता है। सूर्य ने कमल में कुछ नहीं किया और कमल ने सूर्य में कुछ नहीं किया। यह तो सब सहज निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है कि सूर्य उगता है तो कमल खिल जाता है।
ज्ञान ने संपूर्ण लोकालोक को सहजभाव से जान लिया है और संपूर्ण लोकालोक ज्ञान में सहजभाव से झलक गया है।
आचार्यदेव ने गाथा के माध्यम से कहा ही है कि जैसे चक्षु रूप को देखती है; उसीप्रकार आत्मा इन्द्रियातीत होता हुआ ज्ञेयों में न अप्रविष्ट होकर और न ही प्रविष्ट रहकर अशेष जगत को जानता-देखता है। जानना-देखना आत्मा का स्वभाव है, स्व-परप्रकाशकत्व यह एक आत्मा की शक्ति है। __यहाँ एक प्रश्न है कि आत्मा में जो ज्ञानगुण है, वह निश्चय से है या व्यवहार से है?