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प्रवचनसार का सार
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और ज्ञेय ज्ञान में जाने जाते हैं
जब हम किसी चीज का रस चखते हैं तो पदार्थ को हमारे जिव्हा तक आना पड़ता है अथवा हमारी जिव्हा को उस पदार्थ तक जाना पड़ता है; अन्यथा रस नहीं चखा जा सकता।
किसी पदार्थ की गंध को हमें जानना है तो उस गंध को हमारे नाक में आकर टकराना होगा अथवा हमारी नाक को उस गंध तक जाना होगा। अन्यथा हम उस गंध को नहीं जान सकते हैं।
यदि हमें शब्द सुनना हो तो उन शब्दों को हमारे कान से टकराना होगा, अन्यथा हमारे कान को वहाँ जाकर लगना पड़ेगा। अन्यथा हम उन शब्दों को नहीं सुन सकते हैं।
यदि हम किसी वस्तु को सूँघने अर्थात् गंध का ज्ञान करने जाय और उस वस्तु से हमें एलर्जी हो तो हमें जुखाम हो सकता है, अगर जोर से शब्द हमारे कानों पर पड़े तो हमारे कान का पर्दा भी फट सकता है, हम मिर्ची का स्वाद चखने जाए तो हमारी जिव्हा भी जल सकती है; क्योंकि हमें वहाँ जाकर उसका स्पर्श करना पड़ता है।
इतनी सारी समस्यायें देखकर सामनेवाला यह कह सकता है कि हमें ऐसा जाननेवाला संबंध नहीं चाहिए ।
तब आचार्य कहते हैं कि यह संबंध नेत्रेन्द्रिय जैसा है। जैसे नेत्र अग्नि को देखें तो जलते नहीं हैं, बर्फ को देखें तो ठण्डे नहीं होते । जिसप्रकार आँख दूर रहकर जानती है; अत: अप्राप्यकारी है अर्थात् उस पदार्थ को प्राप्त नहीं होती है, उन पदार्थों के पास नहीं जाती है, ज्ञान का स्वभाव भी ऐसा ही है।
जिस जीव ने ज्ञान के स्वभाव को नहीं पहचाना और इन्द्रियज्ञान को ही ज्ञान मान लिया तो वह जीव जानने से ही घबराने लगता है। आचार्य कहते हैं कि ज्ञान का स्वभाव चक्षु इन्द्रिय जैसा है; रसना, घ्राण अथवा स्पर्शन इन्द्रिय जैसा नहीं है।
लोग कहते हैं कि - "भाईसाहब ! मैंने एक किताब लिखी है,
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तीसरा प्रवचन
आप जरा इस पर एक निगाह डाल लो।"
तब मैं कहता हूँ "मेरे पास समय नहीं है। "
क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मेरे दो घंटे व्यर्थ हो जाएँगे; यह पहले तो निगाह डालने के लिए कहेगा; इसके बाद कहेगा कि कहीं गड़बड़ी हो तो ठीक कर देना और यदि ठीक है तो ठीक है - यह लिखकर दे देना । यदि उसे गड़बड़ी बताएँगे तो बहस करेगा, समय व्यर्थ करेगा ।
यदि तंग आकर हम "ठीक है" - ऐसा कह देते हैं तो 'लिख के दो' - ऐसा कहता है। वह कहता है कि - 'इसमें मैं दो शब्द छाप देता हूँ कि आपने इसे अच्छी तरह देख लिया है और यह बिल्कुल सही है।'
जो इसकी गलतियाँ है; उन्हें वह हमारे ही माथे अनन्तकाल तक के लिए मढ़ना चाहता है । वह सिर्फ दिखाने के लिए नहीं दिखाना चाहता है।
यह कहता है कि जरा-सा देख लीजिए ! भाई ! यह जरा-सा देखना नहीं है; बहुत तकलीफ का काम है।
अरे भाई ! जानने में तकलीफ नहीं है; जो तकलीफ हुई है, वह राग-द्वेष के कारण हुई है। सहजभाव से जानने में आ जाए तो कोई समस्या नहीं है ।
इसलिए आचार्य कहते हैं कि जैसे चक्षु रूप को जानती है; वैसे ही तुम जानो; घबराओ नहीं। अगली गाथा में आचार्य स्पष्ट करते हैं - विट्टणाविणाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू ।
जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं ।। २९ ।।
( हरिगीत )
प्रविष्ठ रह अप्रविष्ठ रह ज्यों चक्षु जाने रूप को ।
त्यों अतीन्द्रिय आत्मा भी जानता सम्पूर्ण जग ।। २९ ।।
न तो ज्ञान ज्ञेय में प्रविष्ट होता है और न ही ज्ञेय ज्ञान में । ज्ञेय ज्ञेय में
रहते हैं और ज्ञान ज्ञान में रहता है। ज्ञान के जानने से ज्ञेय में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती है और ज्ञेय ज्ञान में जाने जाते हैं तो ज्ञान में कोई बाधा