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________________ १८८ प्रवचनसार अनुशीलन गुण होगा; क्योंकि शब्द विचित्रता ( विविधता) के द्वारा विश्वरूप ( अनेकानेक प्रकार) पना दरशाता होने पर भी उसे अनेकद्रव्यात्मक पर्याय के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्रश्न- यदि शब्द को पर्याय न मानकर गुण मानें तो क्या बाधा है ? उत्तर - पहली बात तो यह है कि शब्द को अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं माना जा सकता; क्योंकि गुण-गुणी के अभिन्नप्रदेशत्व होने से एक ज्ञान ज्ञात होने योग्य होने से अमूर्त द्रव्य भी कर्णेन्द्रिय के विषय हो जावेंगे। दूसरी बात यह है कि पर्याय के लक्षण द्वारा गुण का लक्षण उत्थापित होने से शब्द मूर्त द्रव्य का भी गुण नहीं है। पर्याय का लक्षण कादाचित्क (अनित्य) पना ही है और गुण का लक्षण नित्यपना है; इसलिए शब्दों में अनित्यता से नित्यता के उत्थापित होने से शब्द गुण नहीं है। शब्दों में जो नित्यपना देखने में आता है, वह नित्यपना शब्दों को उत्पन्न करनेवाले पुद्गलों और उनके स्पर्शादि गुणों का ही है, शब्दपर्याय का नहीं । - इसप्रकार अति दृढ़तापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। यदि कोई ऐसा तर्क उपस्थित करे कि शब्द यदि पुद्गल की पर्याय है तो वह पृथ्वीस्कंध की तरह स्पर्शनादि इन्द्रियों का विषय होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार पृथ्वीरूप पुद्गल पर्याय सभी इन्द्रियों से जानने में आती है; उसीप्रकार शब्दरूप पुद्गलपर्याय भी सभी इन्द्रियों से जानने में आना चाहिए ? यह तर्क ठीक नहीं है; क्योंकि पुद्गल की पर्याय होने पर भी पानी घ्राणेन्द्रिय का विषय नहीं है, पुद्गल की पर्याय होने पर भी अग्नि घ्राणेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय का विषय नहीं है और पुद्गल की पर्याय होने पर भी वायु, घ्राण, रसना व चक्षु इन्द्रिय का विषय नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि पानी गंध रहित है; इसलिए घ्राण से अग्राह्य है; अग्नि गंध और रस रहित है; इसलिए प्राण और रसना इन्द्रिय से अग्राह्य है और वायु गंध, रस और वर्ण रहित है; इसलिए घ्राण, रसना और चक्षु इन्द्रिय से अग्राह्य है; क्योंकि गाथा - १३२ १८९ सभी पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले माने गये हैं; क्योंकि जिनके स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त हैं - ऐसे चन्दकान्त मणि को, अरणि को और जी को पुद्गल उत्पन्न करते हैं; उन्हीं के द्वारा जिसकी गंध अव्यक्त है - ऐसे पानी, जिसकी गंध और रस अव्यक्त हैं ऐसी अग्नि और जिसकी गंध, रस व वर्ण अव्यक्त हैं - ऐसी उदरवायु की उत्पत्ति होती देखी जाती है। तात्पर्य यह है कि स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले चन्द्रकान्त मणि से पानी की, अरणि की लकड़ी से अग्नि की और जौ नामक अनाज के खाने से उदरवायु की उत्पत्ति देखी जाती है। मूल बात यह है कि किसी भी पर्याय में किसी गुण के कादाचित्क परिणाम की विचित्रता के कारण होनेवाला व्यक्तपना और अव्यक्तपना नित्य द्रव्यस्वभाव का व्याघात नहीं करता। तात्पर्य यह है कि अनित्य परिणाम होने के कारण होनेवाली गुण की प्रगटता और अप्रगटता नित्य द्रव्यस्वभाव के साथ कहीं भी विरोध को प्राप्त नहीं होती । इसलिए शब्द पुद्गल की पर्याय ही होना चाहिए।" आचार्य जयसेन ने भी तात्पर्यवृत्ति में उक्त गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही तर्क की कसौटी पर कहकर प्रस्तुत किया है। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को ३१ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जिनमें १ मत्तगयन्द, १ सवैया, २ मनहरण, २ चौपाई, २ छप्पय, १ कवित्त और २३ दोहे हैं । उन सभी को यहाँ प्रस्तुत करना संभव नहीं है; वे सभी मूलतः पठनीय हैं। उक्त ३१ छन्दों में उन्होंने आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका में समागत समस्त विषय-वस्तु को तो सतर्क और सोदाहरण प्रस्तुत किया ही है; साथ में ८ प्रकार के स्पर्श, ५ प्रकार के रस, ५ प्रकार के वर्ण और २ प्रकार की गंध के भेद-प्रभेदों को भी प्रस्तुत कर दिया है। मूल गाथा और आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में तो पुद्गल के सूक्ष्म और स्थूल - ये दो भेद ही बताये हैं; पर वृन्दावनदासजी
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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