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________________ १८६ प्रवचनसार अनुशीलन द्रव्य संख्या से एक है और गुण संख्या से अनेक हैं। इससे संख्या भेद से भेद है। द्रव्य सामान्य है, गुण विशेष हैं। द्रव्य आश्रय देनेवाला है और गुण आश्रय लेनेवाले हैं। द्रव्य में गुण हो सकते हैं; परन्तु एक ही गुण में द्रव्य नहीं हो सकता । द्रव्य अनंत गुणों का पिण्ड है, गुण में एक गुण है। इससे लक्षण भेद से भेद है।' स्पर्श, रस, गंध, वर्णादिवाले पुद्गलद्रव्य मूर्तद्रव्य हैं और जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अमूर्तद्रव्य हैं। मूर्त द्रव्य में मूर्त गुण है और अमूर्त द्रव्यों में अमूर्तत्व/अरूपीपना है। उन गुणों में रूपीपना और अरूपीपना - ऐसी विशेषता होने से, भिन्नता होने से, पुद्गलद्रव्य में रूपीपना है और जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल में अरूपीपना है - ऐसा निर्णय करना ज्ञान की निर्मलता का कारण है। मूर्तगुण पुद्गलद्रव्य के हैं; क्योंकि एक पुद्गलद्रव्य ही मूर्त है और अमूर्तगुण अन्य पाँच द्रव्यों अर्थात् जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के हैं; क्योंकि पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पाँच द्रव्य अमूर्त हैं। इसप्रकार आत्मा में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नहीं है - ऐसे ही अन्य चार द्रव्यों में भी स्पर्शादि गुण नहीं हैं। इसप्रकार ज्ञेयों को मूर्त-अमूर्त के भेद से यथार्थ जानना ज्ञान की विशेषता का कारण है।" इसप्रकार उक्त दोनों गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि जिन लिंगों (चिह्नों) से द्रव्यों को पहिचाना जाता है; उन्हें गुण कहते हैं। यद्यपि ये गुण अपने आश्रयभूत द्रव्य के साथ तन्मय हैं; तथापि उनमें परस्पर अतद्भाव है। जिन वस्तुओं के प्रदेश भिन्न-भिन्न होते हैं, उनमें अत्यन्ताभाव और जिनके प्रदेश अभिन्न होते हैं, उनमें अतद्भाव होता है। यह बात द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार में विस्तार से स्पष्ट की जा चुकी है। यहाँ तो यह कह रहे हैं कि मूर्त द्रव्यों के सभी गुण मूर्त और अमूर्त द्रव्यों के सभी गुण अमूर्त होते हैं और जो इन्द्रियों के माध्यम से जाने जाते हैं, वे मूर्त हैं और जो इन्द्रियों से नहीं जाने जाते, वे अमूर्त हैं। . १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१७ २. वही, पृष्ठ-१८ ३. वही, पृष्ठ-२० प्रवचनसार गाथा १३२ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अन्तर्गत समागत द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार में अबतक छह द्रव्यों को जीव-अजीव, लोक-अलोक, सक्रिय-निष्क्रिय और मूर्त-अमूर्त द्रव्यों के रूप में प्रस्तुत करने के उपरान्त अब आगामी तीन गाथाओं में सभी द्रव्यों के उन गुणों को बताते हैं, जिनसे वे पहिचाने जाते हैं। सबसे पहले १३२वीं गाथा में मूर्तपुद्गलद्रव्य के गुणों को बताते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार हैवण्णरसगंधफासा विजंते पुग्गलस्स सुहमादो। पुढवीपरियत्तस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो ।।१३२ ।। (हरिगीत ) सूक्ष्म से पृथ्वी तलक सब पदगलों में जो रहें। स्पर्श रस गंध वर्ण गुण अर शब्द सब पर्याय हैं ।।१३२।। सूक्ष्म पुद्गलों से पृथ्वीपर्यन्त स्थूल पुद्गलों में वर्ण, रस, गंध और स्पर्श गुण होते हैं और विविध प्रकार के शब्द पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं __ "इन्द्रियों के विषय होने से स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इन्द्रियग्राह्य हैं। इन्द्रियग्राह्यता की व्यक्ति और शक्ति के वश से भले ही वे इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य किये जाते हों या न किये जाते हों; तथापि वे एकद्रव्यात्मक सूक्ष्म परमाणु से लेकर अनेकद्रव्यात्मक स्थूलपर्यायरूप पृथ्वीस्कंध तक के समस्त पुद्गलों के अविशेषतया विशेष गुणों के रूप में होते हैं और उनके मूर्त होने के कारण ही, पुद्गलों के अतिरिक्त शेष द्रव्यों के न होने के कारण वे पुद्गल को ही बतलाते हैं। ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए कि शब्द भी इन्द्रियग्राह्य होने से
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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