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________________ गाथा-१३०-३१ १८४ प्रवचनसार अनुशीलन को प्राप्त हैं। जिस-जिस द्रव्य का जो-जो स्वभाव हो, उस-उस द्रव्य का उस-उस गुण के द्वारा विशिष्टत्व होने से उनमें भेद है। इसलिए मूर्त या अमूर्त द्रव्यों का मूर्तत्व-अमूर्तत्वरूप तद्भाव के द्वारा विशिष्टत्व होने से उनमें इसप्रकार का भेद निश्चित करना चाहिए कि ये गुण मूर्त हैं और ये गुण अमूर्त हैं। मूर्त गुणों का लक्षण इन्द्रियग्राह्यत्व है और अमूर्त गुणों का लक्षण उनसे विपरीत है अर्थात् अमूर्त गुण इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञात नहीं होते। ये मूर्त गुण पुद्गलद्रव्य के हैं; क्योंकि एक वही मूर्त है और अमूर्तगुण शेष द्रव्यों के हैं; क्योंकि पुद्गल के अतिरिक्त शेष सभी द्रव्य अमूर्त हैं।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि तद्भाव और अतद्भाव का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि शुद्ध जीवद्रव्य में जो केवलज्ञानादि गुण हैं; उनका शुद्ध जीव के प्रदेशों के साथ जो एकत्व है, अभिन्नत्व है, तन्मयत्व है; वह तद्भाव कहलाता है। उन्हीं गुणों का उन प्रदेशों के साथ जब संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि से भेद किया जाता है; तब वही अतद्भाव कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि द्रव्य और गुणों में अभिन्नप्रदेशत्व होने से तद्भाव है और संज्ञा, संख्या, लक्षणादि की अपेक्षा भेद होने से अतद्भाव है। इसप्रकार द्रव्य और गुणों के बीच तद्भाव भी है और अतद्भाव भी है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि परमाणु तो इन्द्रियग्राह्य नहीं है, फिर उसे मूर्त कैसे माना जा सकता है; क्योंकि मूर्त की परिभाषा तो इन्द्रियों से ग्राह्य बताई गई है। ___आचार्य प्रभाचन्द प्रवचनसार की सरोज भास्कर टीका में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखते हैं कि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होने की योग्यतारूप शक्ति की प्रगटता की अपेक्षा सूक्ष्म परमाणु भी इन्द्रियग्राह्य माने गये हैं। उक्त दोनों गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी ने १ मनहरण, १ छप्पय और ४ दोहों में प्रस्तुत किया है; जो सभी मूलत: पठनीय हैं। नमूने के तौर पर ४ दोहे प्रस्तुत हैं - (दोहा) मिली परस्पर वस्तु को जाकरि लखिये भिन्न । लच्छन ताही को कहत न्यायमती परविन्न ।।९।। जो सुकीय नित दरव के हैं अधार निरबाध । सोई गुन कहलावई वर्जित दोष उपाध ।।१०।। तेई दरवनि के सुगुन लच्छन नाम कहाहिं। जाते तिनकरि जानियै लच्छ दरब सब ठाहिं ।।११।। भेद विवच्छा तैं कहे गुनी सुगुन में भेद। वस्तु विचारत एक हैं ज्ञानी लखत अखेद ।।१२।। जो व्यक्ति न्यायशास्त्र में प्रवीण हैं; वे परस्पर मिली वस्तुओं को जिसके द्वारा भिन्न किया जाता है, उसे लक्षण कहते हैं। जो अपने द्रव्य के आधार पर निरबाध रहते हैं; उन्हें ही गुण कहा जाता है; इसमें कोई दोष और बाधा नहीं है। उन द्रव्यों के वे सुगुण ही लक्षण कहे जाते हैं, उनके द्वारा ही द्रव्य को लक्षित किया जाता है । भेद की अपेक्षा गुण और गुणी में भेद माना गया है; किन्तु वस्तुस्वरूप के विचार करने पर वे दोनों एक ही हैं - ऐसा ज्ञानीजन बिना खेद के जानते हैं। स्वामीजी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "गुण अपने द्रव्य का आश्रय करते हैं, पर का आश्रय नहीं करते। आत्मा के गुण आत्मा का और पुद्गल के गुण पुद्गल का आश्रय करते हैं। पुद्गल के गुण आत्मा का आश्रय किये बिना रहते हैं और आत्मा के गुण पुद्गल का आश्रय किये बिना रहते हैं। जिनसे द्रव्य पहिचाना जा सके - ऐसे लिंग गुण हैं। यद्यपि द्रव्य और गुणों में प्रदेशभेद नहीं है; तथापि संज्ञा, संख्या, लक्षणभेद से भेद है। एक का नाम द्रव्य है, दूसरे का नाम गुण है। इससे संज्ञाभेद से भेद है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१७ २. वही, पृष्ठ-१७
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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