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________________ गाथा-१३२ १९१ १९० प्रवचनसार अनुशीलन ने आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति को आधार बनाकर छह प्रकार के पुद्गल गिनाये हैं और उनका स्वरूप भी स्पष्ट किया है। इसीप्रकार कविवर पण्डित देवीदासजी ने भी इस गाथा के भाव को १६ छन्दों में प्रस्तुत किया है जिनमें ९ दोहे, ६ चौपाइयाँ और १ कवित्त शामिल है। उनमें टीकाओं में समागत सम्पूर्ण वस्तु को शामिल कर लिया है। स्थानाभाव से उन सभी को देना यहाँ संभव नहीं है; अत: मूलत: पठनीय है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "वर्ण, रस, गंध और स्पर्श गुण सूक्ष्म से लेकर पृथ्वी पर्यन्त के सभी पुद्गलों में होते हैं; जो विशिष्ट प्रकार का शब्द है, वह पुद्गल अर्थात् पौद्गलिक पर्याय है। शीत-उष्ण आदि स्पर्श, खट्टा-मीठा आदि रस, सुगंध-दुर्गन्ध, सफेद-लाल-पीला इत्यादि वर्ण इन्द्रियों से जाने जा सकते हैं; क्योंकि वे इन्द्रियों के विषय हैं। ___ एक परमाणु तथा कार्मणवर्गणा आदि जो सूक्ष्म स्कंध हैं, वे वर्तमान में इन्द्रियग्राह्य नहीं होने पर भी, उन परमाणु और सूक्ष्म स्कंधों में भी इन्द्रियों से ज्ञात होने की योग्यता है। वर्तमान में प्रगट योग्यता नहीं; किन्तु उनमें इन्द्रियों से ज्ञात होने की शक्तिरूप योग्यता पड़ी है।' ___ यदि उनमें इन्द्रियों से ज्ञात होने की ताकत नहीं होती तो स्थूलरूप धारण करने पर भी इन्द्रियों से ज्ञात नहीं होने चाहिए; परन्तु स्थूल होने पर इन्द्रियों से ज्ञात होते हैं; इसलिए उनमें सूक्ष्म अवस्था के समय भी इन्द्रियों से ज्ञात होने की ताकत विद्यमान है - ऐसा निश्चित होता है। शब्द गुण नहीं, किन्तु अनेक द्रव्यात्मक पुद्गलपर्याय है। शब्द इन्द्रियों से ज्ञात होता है; इसलिए गुण होगा - ऐसी शंका नहीं करना चाहिए। कितने ही लोग शब्द को आकाश द्रव्य का गुण मानते हैं; १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२४ २. वही, पृष्ठ-२४ ३. वही, पृष्ठ-२५ परन्तु यह मान्यता मिथ्या है। कारण कि गुण और गुणी के प्रदेश भिन्न नहीं है, एक ही प्रदेश है। गुण-गुणी के एक ही प्रदेश में होने के कारण, गुण जिस इन्द्रिय से ज्ञात होता है, उसी इन्द्रिय से गुणी भी ज्ञात होना चाहिए। शब्द तो कान से सुना जा सकता है अर्थात् इन्द्रिय से ज्ञात होता है; इसलिए शब्द को आकाश का गुण मानो तो आकाश जो कि गुणी हुआ, वह भी कान से सुना जाना चाहिए; परन्तु आकाश कान से नहीं सुना जा सकता तथा किसी भी इन्द्रिय से आकाश ज्ञात नहीं होता। इस बात की सिद्धि के लिए युक्ति इसप्रकार है - १. जिसको स्पर्श, रस, गंध, वर्ण चारों व्यक्त हैं - ऐसी चन्द्रकान्तमणिरूप पृथ्वी में से पानी झरता है कि जिस पानी में गंध अव्यक्त है। २. अरणि के लकड़ी में से जो पुद्गल अग्नि होते हैं, कि जिस अग्नि में गंध तथा रस अव्यक्त है। ३. जौ खाने से पेट में वायु होती है कि जिसमें गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है। इसलिए निश्चित होता है कि १. चन्द्रकान्तमणि में २. अरणि में और ३. जौ में रहे हुए चारों गुण १. पानी में, २. अग्नि में और ३. वायु में होना चाहिए। इसलिए इन दृष्टान्तों से सिद्ध होता है कि जो पुद्गल की पर्यायें हैं, वे सब इन्द्रियों द्वारा व्यक्त नहीं होने पर भी उनको पुद्गल की पर्याय कहने में आपत्ति नहीं आती। शब्द भले ही कर्ण इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य हों और अन्य इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य न हों; तथापि शब्द की पर्याय में अन्दर स्पर्शादि गुण रहे हुए हैं - इसकारण शब्द पुद्गल की ही पर्याय हैं।' इसप्रकार शब्द न अमूर्त द्रव्यों के गुण हैं और न मूर्त द्रव्यों के गुण हैं। शब्द तो पुद्गलों की अवस्था है। प्रश्न - शब्द का इतना अधिक विवेचन करने में धर्म क्या आया ? उत्तर - अनादिकाल से जीव भ्रम से मानता है कि आत्मा बोल १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२६ २. वही, पृष्ठ-२८-२९ ३. वही, पृष्ठ-२९
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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