________________
१७४
प्रवचनसार अनुशीलन पर मेरा कहना यह है कि जब हम किसी से पूछे कि आप कौन हैं ? तो यह कहते हुए तो अनेक लोग मिल जावेंगे कि हम जैन हैं, वैष्णव हैं, हिन्दू हैं, मुस्लिम हैं, सिख हैं, बौद्ध हैं; पर यह कोई न कहेगा कि हम अजैन हैं। तात्पर्य यह है कि अपने को कोई अजैन नहीं मानता, अजैन नाम से नहीं पुकारता और न वह अजैन कहलाना ही पसन्द करता है; क्योंकि उसका अजैन नाम तो अपने से भिन्न बताने के लिए हमने दिया है। यह तो नकारात्मक नाम है, वह इसे क्यों स्वीकार करेगा ?
इसीप्रकार के प्रश्न के उत्तर में क्या हम यह उत्तर देंगे कि हम अहिन्दु हैं, असिख हैं, अबौद्ध हैं ? यदि नहीं तो फिर वे लोग ऐसा कैसे कह सकते हैं कि हम अजैन हैं ?
-
वस्तुत: बात यह है कि सकारात्मक (पॉजिटिव) रूप से अजैन कोई नहीं है; हम उन्हें अपने से भिन्न बताने के लिए नकारात्मक (नेगेटिव) भाषा का प्रयोग करके अजैन कहते हैं।
इसीप्रकार जीव से भिन्न पुद्गलादि सभी पदार्थों को अजीव कहा जाता है। जिसप्रकार पुद्गलादि से भिन्न जीव हैं; उसप्रकार पुद्गलादि से भिन्न अजीव कोई नहीं है।
प्रश्न - यदि ऐसी बात है तो फिर किसी को अजीवद्रव्य कहना तो ठीक नहीं है ?
उत्तर - क्यों ? वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन के लिए यह एक महती आवश्यकता है। यदि हमें अपने से भिन्न पुद्गलादि सभी द्रव्यों को एक नाम से कहना हो तो अजीव के अतिरिक्त और कौन-सा शब्द है कि जिसका प्रयोग किया जा सके।
वस्तुस्वरूप की स्पष्टता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है।
यह एक अकेला प्रयोग नहीं है। इसी प्रवचनसार में आगे चलकर छह द्रव्यों के संदर्भ में इसीप्रकार अनेक प्रयोग प्राप्त होंगे। जैसे - द्रव्य दो प्रकार के हैं - मूर्तिक और अमूर्तिक । एकमात्र पुद्गल मूर्तिक है, शेष सभी द्रव्यों का मिलकर एक नाम अमूर्तिक है।
प्रवचनसार गाथा १२८
विगत १२७वीं गाथा में जीवद्रव्य की मुख्यता से द्रव्यों के जीवअजीव भेदों का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब उनका विभाजन आकाशद्रव्य की मुख्यता से लोक और अलोक के रूप में करते हैं। लोक और अलोक का स्वरूप स्पष्ट करनेवाली गाथा मूलतः इसप्रकार है
पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्ढो । वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दु । । १२८ । । ( हरिगीत )
आकाश में जो भाग पुद्गल जीव धर्म अधर्म से ।
अर काल से समृद्ध वह सब लोक शेष अलोक है । । १२८ ।। आकाश में जो भाग जीव और पुद्गल से संयुक्त है तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और कालद्रव्य से समृद्ध है; वह सब सदा ही लोक है। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
" द्रव्यों का लोक और अलोक के रूप में वर्गीकरण अपनी विशेष विशेषता रखता है; क्योंकि लोक और अलोक के अपने विशेष लक्षण हैं।
लोक का लक्षण षड्द्रव्यसमुदायात्मकता है और अलोक का लक्षण केवल आकाशात्मकता है। सर्वद्रव्यों में व्याप्त होनेवाले महान आकाश में जितने आकाश में गति-स्थितिवाले जीव और पुद्गल गति-स्थिति को प्राप्त होते हैं; उनकी गति-स्थिति में निमित्तभूत धर्म और अधर्म द्रव्य व्याप्त होकर रहते हैं और सभी द्रव्यों के परिणमन में निमित्तभूत कालाणुद्रव्य सदा रहते हैं; उतना आकाश और शेष समस्त द्रव्य - इन सबका समुदाय लोक है और यही लोक का लक्षण है।
जितने आकाश में जीव तथा पुद्गल की गति-स्थिति नहीं होती, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य नहीं रहते और कालाणु भी नहीं रहते; उतना