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________________ गाथा-१२८ Pole १७६ प्रवचनसार अनुशीलन अकेला आकाश ही अलोक है और यही अलोक का लक्षण है।" यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि जितने आकाश में छहद्रव्य रहते हैं, अकेले उतने आकाश का नाम लोक नहीं है; अपितु छहद्रव्यों के समूह का नाम लोक है। महान आध्यात्मिक कवि पण्डित दौलतरामजी के ध्यान में यह बात थी; तभी तो उन्होंने छहढाला में लिखी लोकभावना संबंधी छन्द में लोक को षद्रव्यमयी लिखा है। __आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में भी यह बात अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखी है कि छह द्रव्यों का समूह लोक है। यद्यपि कविवर वृन्दावनदासजी के छन्द में यह तथ्य स्पष्टरूप से उभर कर नहीं आ पाया है; तथापि उनके कथन में उक्त तथ्य के विरुद्ध कुछ कहा गया हो - यह बात भी नहीं है। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करनेवाला उनका छन्द इसप्रकार है (छप्पय) जो नभ के परदेश जीव पुद्गल समेत हैं। धर्माधर्म सु अस्तिकाय के जो निकेत हैं।। कालानूजुत पंच दरव परिपूरन जामें। सोई लोकाकाश जानु, संशय नहिं यामें ।। सब कालमाहिं सो अचल है अवगाहन गुन को धरै। तसु परे अलोकाकाश जहँ पंच रंच नहिं संचरै ।।४।। आकाश के जो प्रदेश जीव और पुद्गल सहित हैं; धर्म, अधर्म अस्तिकाय के घर हैं और जिसमें कालाणु सहित पाँच द्रव्य पूर्णता से भरे हुए हैं; उसे ही लोकाकाश जानो - इसमें संशय नहीं है। वह लोकाकाश सदाकाल ही अचल है, अवगाहनगुण को धारण किये हुए है और इस लोक के बाहर अलोकाकाश है, जहाँ शेष पाँच द्रव्यों का संचरण नहीं है। ___ पण्डित देवीदासजी एक छप्पय में उक्त तथ्य को सहज भाव से स्पष्ट कर देते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "लोक का लक्षण छह द्रव्यों का समुदायस्वरूपपना है। लोक में छह द्रव्यों का समुदाय होता ही है। सर्व द्रव्यों में व्यापक, परम महान आकाश के जितने भाग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल रहें; उतना आकाश व अन्य पाँच द्रव्य - ऐसे छह द्रव्यों का समुदाय लोक है।' ___ आकाश के जितने भाग में जीव तथा पुद्गल स्वयं के कारण गति तथा स्थिति नहीं करते, धर्म-अधर्म द्रव्य स्वयं के कारण नहीं हैं और जहाँ कालाणु नहीं हैं; उतना केवल आकाश जिसका स्वलक्षण है, उसको अलोक कहते हैं। अलोक में लोकाकाश के अतिरिक्त अवशेष आकाश मात्र है, अन्य कोई द्रव्य नहीं है।' ___ लोक मर्यादित है और अलोक अमर्यादित है । इसप्रकार ज्ञेय जैसे है, वैसे न जाने तो ज्ञान विपरीत होता है और जिसका ज्ञान विपरीत होता है, उसको धर्म नहीं होता। ज्ञान की विशालता के लिए ज्ञेयों के विशेष जैसे हैं, वैसे समझना चाहिए।" यहाँ एक प्रश्न संभव है कि छह द्रव्यों का समुदाय लोक है। इसमें विशेष ध्यान देने की क्या बात है ? सभी ऐसा जानते-मानते हैं। नहीं, ऐसी बात नहीं है। बहुत से लोग लोकाकाश और लोक में अन्तर नहीं कर पाते । वे लोकाकाश और लोक को एक ही समझते हैं; जबकि उन दोनों में अन्तर है। लोक छह द्रव्यों के समूह का नाम है और लोकाकाश अकेले आकाशद्रव्य का वह भाग है, जहाँ छहों द्रव्य पाये जाते हैं। प्रश्न - विश्व और लोक तो एक ही बात है न ? उत्तर - नहीं; विश्व में अलोकाकाश भी शामिल है, लोक में अलोकाकाश शामिल नहीं है। विश्व छह द्रव्यों का समुदाय है और लोक आकाश का वह प्रदेश है, जहाँ छहों द्रव्य पाये जाते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-९ २. वही, पृष्ठ-१० ३. वही, पृष्ठ-१० ४. वही, पृष्ठ-१०
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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