________________
गाथा-१२७
१७३
१७२
प्रवचनसार अनुशीलन अनादिसिद्ध सत्तास्वरूप द्रव्य जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार के हैं। शास्त्रों के मंथन से यह बात सिद्ध है। उनमें जीव का विलक्षण लक्षण अविनाशी प्रकाशवाली चेतना है। उसके प्रवाहरूप सामान्य का ग्राहक दर्शनोपयोग और विशेष का ग्राहक ज्ञानोपयोग है। पुद्गलादि अजीवद्रव्य अचेतन हैं।
वृन्दावन कवि कहते हैं कि निर्ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द ने यही कहा है। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
(अडिल्ल) दरव जीव निरजीव उभै विधि जानिये। पुनि चेतना स्वरूप जीव पहिचानिये ।। सहित वहुरि उपयोग जानिवौ देखिवौ ।
पंचभाव तन आदि अचेतन लेखिवौ ।।६।। द्रव्य जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार के जानने चाहिए और उनमें चेतनलक्षणवाला जीव जानने-देखनेरूप चेतना से पहिचाना जाता है। शरीर आदि पाँच प्रकार के अचेतन द्रव्य अजीव हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ____ “अब आचार्यदेव सर्वज्ञ भगवान द्वारा अपने केवलज्ञान में जाने हुए
और दिव्यध्वनि में प्रतिपादित किए हुए छह द्रव्यों का वास्तविक स्वरूप कहते हैं। उनमें सर्वप्रथम द्रव्यों के दो भेद - जीव और अजीव के बारे में कहते हैं। इस जगत में न तो अकेला जीव ही है और न अकेला अजीव ही; अपितु जीव और अजीव दोनों हैं। उनमें चेतनामय तथा उपयोगमय जीव है और पुद्गलादिक अचेतन द्रव्य अजीव हैं।
द्रव्यों को द्रव्यरूप से देखने पर उनमें भेद नहीं पड़ता। द्रव्यपना सबमें एक-सा होने पर भी प्रत्येक द्रव्य के विशेष लक्षण के अस्तित्व के कारण भेद पड़ता है। 'द्रव्य' - इतना ही कहने से जीव-अजीव भिन्न नहीं पड़ते; परन्तु विशेष लक्षण से भिन्न पड़ते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२ २. वही, पृष्ठ-२ ३. वही, पृष्ठ-३
जीव का विशेष लक्षण चेतनामय और उपयोगमयपना है। जीव का स्वभाव समस्त ज्ञेयों को एकसमय में जानने का है। यदि एक भी ज्ञेय को जानने का अस्वीकार होता है तो चेतना उपयोग ही सिद्ध नहीं होता। __ आशय यह है कि द्रव्यपनेरूप सामान्य की अपेक्षासे द्रव्यों में एकपना होने पर भी, विशेष लक्षणों की अपेक्षा से द्रव्यों के जीव और अजीव - ऐसे दो भेद हैं। जो द्रव्य महिमावंत चेतना सहित और चेतना के उपयोग सहित हैं, वे जीव हैं और जो चेतनारहित होने से अचेतन हैं, वे अजीव हैं।
इसप्रकार जीव का एक भेद है और अजीव के पाँच भेद हैं।"
इसप्रकार इस गाथा में मात्र इतना ही कहा है कि यद्यपि द्रव्यत्वसामान्य की अपेक्षा सभी पदार्थ द्रव्य हैं; तथापि द्रव्य एक नहीं; अनेक हैं, अनेकप्रकार के हैं। उन अनेक प्रकारों में एक प्रकार यह भी है कि चेतना लक्षणवाले कुछ द्रव्य जीव हैं और चेतना लक्षण से रहित शेष सभी पुद्गलादि द्रव्य अजीव हैं।
वस्तुत: द्रव्य छह प्रकार के हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों को अजीव कहा जाता है; क्योंकि वे जीव नहीं हैं, उनमें जीवत्व नहीं है, चेतना नहीं है।
उन्हें जो अजीव नाम दिया गया है, वह जीव की ओर से है, जीव की मुख्यता से किये गये कथन की अपेक्षा से है; क्योंकि उन द्रव्यों के अपनेअपने स्वतंत्र नाम हैं और उनकी स्वतंत्र परिभाषायें भी हैं, जिनकी चर्चा आगे यथास्थान होगी।
प्रश्न - क्या अजीव नामक कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है ?
उत्तर - जीव से भिन्न पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन पाँच द्रव्यों को छोड़कर इनसे पृथक् अजीव नाम का कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। जब हम किसी से पूछते हैं कि यहाँ जैनों के कितने घर हैं ? तो हमें उत्तर मिलता है कि १०० घर हैं। पर यदि हम यह पूछे कि अजैनों के कितने घर हैं तो यही कहा जायेगा, शेष सब अजैन ही तो हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३
२. वही, पृष्ठ-७