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________________ गाथा-१२६ १६ष १६६ प्रवचनसार अनुशीलन अत्यन्त स्पष्टरूप से एक बात तो यहाँ यह कही गई है कि ज्ञानदशा में और अज्ञानदशा में भी आत्मा का पर के साथ कोई संबंध नहीं है; वह अपने परिणमन का स्वयं ही कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल है। दूसरी बात यह है कि उसकी समस्त पर्यायें उसी में विलीन हैं; इसप्रकार वह कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल का अभेद पिण्ड है। तात्पर्य यह है कि बंधमार्ग में भी आत्मा स्वयं स्वयं को स्वयं से बाँधता है और भोगता है और मोक्षमार्ग में भी आत्मा स्वयं को स्वयं मुक्त करता है और भोगता है। बंधमार्ग में सांसारिक सुख-दुःख को भोगता है और मोक्षमार्ग में अतीन्द्रिय सुख को भोगता है। इसप्रकार यह आत्मा बंधमार्ग में भी अकेला रहता है और मोक्षमार्ग में भी अकेला रहता है - ऐसा निश्चय करके ज्ञानी आत्मा पर से अन्यत्व और अपने में एकत्व स्थापित करता है, एकत्व और अन्यत्व भावना भाता है। द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार की इस गाथा में प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता की घोषणा की गई है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि आत्मा भी एक स्वतंत्र द्रव्य है; इसकारण वह भी अपने विकारी-अविकारी परिणमन में पूर्णतः स्वतंत्र है। विकारी परिणमन में परद्रव्यरूप कर्मोदय का सद्भाव और निर्मल परिणमन में परद्रव्यरूप कर्मोदय के उदय का अभाव तो निमित्तमात्र है। कर्म उक्त परिणमन का कर्ता-भोक्ता नहीं; उक्त परिणमन का कर्ता-भोक्ता तो भगवान आत्मा ही है। इसके बाद इस द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में उपसंहार संबंधी ३ कलश (छन्द) हैं, जिनमें अन्तिम अनुष्टुप छन्द तो मात्र इतना ही कहता है कि इसप्रकार द्रव्यसामान्य के ज्ञान से मन को गंभीर करके अब द्रव्यविशेष के परिज्ञान का आरंभ करते हैं। उक्त छन्द की चर्चा यहाँ न करके द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार के आरंभ में करना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। शेष दो छन्दों में एक वसंततिलका और एक मन्दाक्रान्ता छन्द है। उनमें पहला छन्द इसप्रकार है (वसंततिलका ) द्रव्यान्तरव्यतिकरादपसारितात्मा सामान्यमञ्जितसमस्तविशेषजातः । इत्येष शुद्धनय उद्धतमोहलक्ष्मी लुण्टाक उत्कटविवेकविविक्ततत्त्वः ।।७।। (मनहरण कवित्त) जिसने बताई भिन्नता भिन्न द्रव्यनि से। और आतमा एक ओर को हटा दिया ।। जिसने विशेष किये लीन सामान्य में। और मोहलक्ष्मी कोलूट कर भगा दिया।। ऐसे शुद्धनय ने उत्कट विवेक से ही। निज आतमा का स्वभावसमझा दिया।। और सम्पूर्ण इस जग से विरक्त कर। इस आतमाको निजातम मेंलगा दिया।।७।। जिसने अन्यद्रव्य से भिन्नता के द्वारा आत्मा को परद्रव्यों से अलग दिखाया और समस्त विशेषों को सामान्य में लीन किया; ऐसे इस उदण्ड मोहलक्ष्मी को लूट लेनेवाले शुद्धनय ने उत्कट विवेक के द्वारा आत्मतत्त्व को पर से भिन्न अकेला दिखाया है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस कलश का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि - "शुद्धनय आत्मा को परपदार्थ जैसे कि स्त्री-कुटुम्ब तथा देव-गुरुशास्त्र, शरीर और कर्म से अलग करता है अर्थात् उनसे पृथक् दर्शाता है। ___ यहाँ क्षेत्र से अलग होने की बात नहीं; अपितु संयोगबुद्धि, निमित्ताधीन बुद्धि दूर होकर स्वभावबुद्धि हुई, उस भाव को, परद्रव्य से आत्मा को अलग किया - ऐसा कहा है तथा शुद्धनय पर्याय के भेद को स्वीकार नहीं करता, अकेले अभेद आत्मा को ही स्वीकारता है। आत्मा विकार को दूर करनेवाला है और शुद्धता को प्रगट करनेवाला
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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