________________
१६४
प्रवचनसार अनुशीलन कर्म की तरफ के मेरे झुकाव के कारण मेरे स्वभाव में विकार न होने पर भी मेरी पर्यायबुद्धि के कारण मैं विकारवाला था और कर्म द्वारा आरोपित हुआ था, इसीलिए संसार था।
अज्ञान दशा में अथवा अधर्म दशा में भी कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है।
जिसतरह जब स्फटिकमणि के पास लाल फूल नहीं होता, तब स्फटिकमणि अपने निर्मल स्वभाव को प्रकाशित कर रहा है; इसीतरह मेरे में शुद्धता प्रगट होने से पर के द्वारा आरोपित विकार मेरे में अटक (रुक) गया है - ऐसा मैं सर्वथा मोक्ष का इच्छुक हूँ । विकार की तरफ के झुकाव का नाश हुआ अर्थात् कर्म द्वारा आरोपित विकार मेरे में अटक गया है, क्योंकि वह मेरा वास्तव में स्वभाव नहीं था।
अज्ञान दशा में मेरा कोई नहीं था और वर्तमान में ज्ञान दशा में भी वास्तव में मेरा कोई भी नहीं है।
देखो, मुनि एकत्व भावना भाते हैं - पूर्व संसार दशा में मैं अकेला था; स्त्री, कुटुम्ब, शरीर कोई भी मेरा संबंधी नहीं था और वहाँ मेरे रागद्वेष आदि परिणाम का कर्ता, कर्म, साधन और फलरूप मैं ही था । जड़कर्म अथवा अन्य पदार्थ के कारण अज्ञान राग-द्वेष नहीं थे। यहाँ ज्ञान दशा में भी मैं अकेला ही हूँ। देव-गुरु-शास्त्र भी मेरे नहीं हैं।
यहाँ ज्ञान दशा में निर्मल पर्याय का कर्ता, निर्मल शुद्धतारूप कार्य, शुद्धता का साधन और शुद्धता के फल को भोगनेवाला मैं ही हूँ। इसप्रकार आत्मा की शुद्धता का अथवा धर्म की अवस्था का कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है।
एकत्व की भावना का फल आत्मा की शुद्धता अथवा सुख है। इसतरह विकारी दशा में विकार का कर्ता आत्मा है, विकार होने में करण आत्मा है. विकारी होनेरूपकार्य आत्मा है और विकार का फल आकलता भी आत्मा है; इसीतरह शुद्धता की दशा में शुद्धता का कर्ता आत्मा है, १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-४१६
२. वही, पृष्ठ-४१७-४१८
गाथा-१२६
१६५ शुद्धता होने में साधन आत्मा है, शुद्धतारूप कार्य आत्मा है और शुद्धता का फल सुख वह भी आत्मा है। इसप्रकार धर्मी जीव विचार करता है। आत्मा संसार में अकेला है और मोक्षमार्ग में भी अकेला है।
ज्ञानी जीव को अथवा अज्ञानी जीव को परपदार्थ के साथ संबंध नहीं है।
एक परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ संबंध नहीं है । जिसप्रकार वह परमाणु स्वयंसिद्ध पदार्थ है; वैसे ही आत्मा भी स्वयंसिद्ध सुखस्वरूप अकेला पदार्थ है। स्त्री, कुटुंब और देव-गुरु-शास्त्र के साथ मेरा संबंध नहीं है - इसप्रकार एकत्व भावना को जो जीव भाता है, अनुभवता है, समझता है, चितवन करता है; उस जीव को विकार बिलकुल नहीं होता।
एक परमाणु जबतक अकेला रहता है, तबतक स्कंधरूप अशुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं होता । इसीतरह एकत्व की भावना भानेवाले जीव को अपने सुख और आनंद के लिए परपदार्थ की तरफ देखना नहीं रहता, वह पर के संगवाला नहीं होता और परद्रव्य के साथ असंगपना होने पर अर्थात् संयोगी बुद्धि दूर होने पर स्वभाव बुद्धि उत्पन्न होती है अर्थात् शुद्धदशा होती है।
इस शुद्धदशा का कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है - ऐसे भेदों को भी धर्मी जीव नहीं भाते, किन्तु इन चारों में सामान्य रहे अभेद आत्मा को ही वे भाते हैं और अनुभवते हैं; इसकारण वे पुरुष पर्यायों से खण्डित नहीं होते। ____ जबतक विकल्प का आश्रय था, तबतक कर्ता, करण आदि चार भेद पड़ते थे और पर्याय से खण्डित होता था, किन्तु अभेद आत्मारूप हुआ अर्थात् विकल्प का उत्थान नहीं रहा अर्थात् रागवाली पर्याय उत्पन्न नहीं होती, किन्तु धर्म की निर्मल पर्याय प्रगट होती है और वह आत्मा के साथ अभेद होती है; इसीलिए पर्याय के भेदों से खण्डित नहीं होने के कारण आत्मा सुविशुद्ध होता है।
इसप्रकार एकत्व भावना का फल अनाकुल सुख बताया है।" १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-४१९ २. वही, पृष्ठ-४२०