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________________ १६२ प्रवचनसार अनुशीलन स्वभाव के कारण आत्मा से प्राप्य अर्थात् प्राप्त होने योग्य हूँ और मैं अकेला ही अनाकुलत्वलक्षणवाला सुख नामक कर्मफल हूँ, जो कि सुविशुद्ध चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव से उत्पन्न किया जाता है। 'इसप्रकार बंधमार्ग में और मोक्षमार्ग में आत्मा अकेला ही है' - इसप्रकार भानेवाले पुरुष को परमाणु की भाँति एकत्व भावना में उन्मुख (तत्पर) होने से परद्रव्यरूप परिणति किंचित्मात्र भी नहीं होती और परमाणु की भाँति ही एकत्व को भानेवाला पुरुष पर के साथ संपृक्त नहीं होता; इसलिए परद्रव्य के साथ असंबद्धता के कारण वह सुविशुद्ध होता है और कर्ता, करण, कर्म तथा कर्मफल को आत्मारूप से भाता हुआ, वह पुरुष पर्यायों से संकीर्ण नहीं होता, खण्डित नहीं होता; इसलिए पर्यायों से संकीर्ण न होने से सुविशुद्ध होता है।” आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका की बात को ही दुहरा देते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के उपरान्त छोटे-बड़े १० छन्द लिखते हैं, जिनमें २ मनहरण, १ छप्पय, १ कवित्त, १ मत्तगयन्द सवैया और ५ दोहे हैं। इनमें अन्तिम ४ छन्द तो द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार के उपसंहार रूप में हैं, शेष ६ छन्द इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हैं। उपसंहार संबंधी छन्द तत्त्वप्रदीपिका में समागत उपसंहार संबंधी कलशों (छन्दों) के भाव को स्पष्ट करते हैं। ये सभी छन्द मूलतः पठनीय हैं। नमूने के रूप में गाथा के भाव को स्पष्ट करनेवाला एक छन्द प्रस्तुत है( मनहरण कवित्त ) करता करन तथा करम करमफल, चारोंरूप आतमा विराजै तिहूँपन में । ऐसे जिन निहचै कियो है भलीभाँति करि, एकता सुभाव अनुभवें आपु मन में ।। परदर्वरूप न प्रनवै काहू कालमाहिं, लागी है लगन जाकी आतमीक धन में। गाथा - १२६ सोई मुनि परम धरम शिवसुख लहै, वृन्दावन कबहूँ न आवै भववन में ।। ११५ ।। 'यह आत्मा कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल- इन चारोंरूप में विराजमान रहता है' - जिस व्यक्ति ने उक्त बात का निश्चय भलीभाँति कर लिया है, वह आत्मा के एकत्वस्वभाव का अनुभव करता है। जिसकी लगन आत्मारूपी धन में लगी है, वह किसी भी काल में परद्रव्यरूप परिणमित नहीं होता । १६३ वृन्दावन कवि कहते हैं कि इसप्रकार के मुनिराज कभी संसारवन में नहीं भटकते; वे परमधर्म के फलस्वरूप मुक्तिसुख को प्राप्त करते हैं। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं " इसप्रकार कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है, पुद्गल नहीं अर्थात् आत्मा का परद्रव्यों के साथ संबंध नहीं है - ऐसा जिस जीव ने यथार्थ ज्ञान द्वारा निर्णय किया है, वह जीव वास्तव में विकाररूप परिणमित नहीं होता । ' अज्ञानदशा में भी मैं अकेला आत्मा स्वयं ही राग का कर्ता, कर्म आदि था, अन्य कोई परपदार्थ मेरे अज्ञान और राग-द्वेष का कर्ता नहीं था इसप्रकार प्रथम अज्ञान दशा का ज्ञान कराते हैं। स्फटिकमणि में स्वयं तो लालरूप होने की योग्यता है, तब लाल फूल ने स्फटिक को लाल किया ऐसा कहा जाता है; जबकि लाल फूल ने स्फटिक को लाल नहीं किया है, अपितु स्फटिकमणि स्वयं लालरूप परिणमित हुआ है, तब लाल फूल की निकटता से उत्पन्न हुई ललाई द्वारा स्फटिकमणि लाल हुआ ऐसा कहने में आता है। जैसे स्फटिकमणि लाल फूल की उपस्थिति में स्वयं की योग्यता कारण ललामीरूप परिणमित होता है, वैसे ही अनादि कर्म के संयोग से १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-४१३ २. वही, पृष्ठ ४१४ ३. वही, पृष्ठ ४१४
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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