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________________ गाथा-१२६ कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा १६८ प्रवचनसार अनुशीलन है- ऐसे भेद शुद्धस्वभाव में नहीं हैं। कर्ता-करण आदि के भेद पर्याय में होते हैं, जो स्वभाव तरफ दृष्टि रखने पर नाश को प्राप्त होते हैं और पर्यायें द्रव्य के अन्दर डूब जाती हैं। इसीलिए शुद्धनय विशेषों को द्रव्य सामान्य में मग्न करता है अर्थात् पर्यायबुद्धि, अंशबुद्धि, रागबुद्धि का नाश करता है और स्वभावबुद्धि उत्पन्न करता है। ऐसा शुद्धनय वर्तमान पर्याय को अभेद शुद्धस्वभाव में लीन करता है, इसीलिए मिथ्यात्व राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते। शुद्धनय ने आत्मा के स्वरूप को राग-द्वेष तथा गुण-भेद से सम्यग्ज्ञान द्वारा पृथक् किया है। जितना-जितना शुद्धनय द्वारा अभेद आत्मा में एकाकार होता है, उतना-उतना आत्मा पर्याय में शुद्ध होता जाता है और सम्पूर्ण एकाकार होने पर परिपूर्ण वीतरागदशा तथा केवलज्ञानदशा प्राप्त होती है।" इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि एकमात्र शुद्धनय ही ऐसा नय है, जो आत्मा को परद्रव्यों से पृथक् और सम्पूर्ण विशेषों को आत्मा में अन्तर्लीन दिखाकर आत्मा में ही स्थापित करता है और मोहलक्ष्मी को लूट लेता है अर्थात् मोह का नाश कर देता है। ___ अत: शुद्धनय के कथन को सत्यार्थ जानकर शुद्धनय के विषयभूत अपने शुद्धात्मा में समा जाना ही श्रेयस्कर है। दूसरा छन्द इसप्रकार है - _ (मंदाक्रान्ता) इत्युच्छेदात्परपरिणतैः कर्तृकर्मादिभेदभ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशदे मूर्छितश्चेतनोऽयं स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव ।।८।। (मनहरण कवित्त) इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर । करता-करम आदिभेदोंकोमिटा दिया।। इस भाँति आतमा का तत्त्व उपलब्ध कर। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-४२१-४२२ २. वही, पृष्ठ-४२२ ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल। सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया।। आपनी ही महिमामय परकाशमान । रहेगा अनंतकाल जैसासुख पा लिया ।।८।। परपरिणति के उच्छेद और कर्ता, कर्म आदि भेदों की भ्रान्ति के नाश से जिसने शुद्धात्मतत्त्व उपलब्ध किया है; ऐसा वह आत्मा चैतन्यमात्ररूप निर्मल तेज में लीन होता हुआ अपनी सहज महिमा के प्रकाशमानरूप से सदा मुक्त ही रहेगा। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस कलश का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि - ___“आत्मा शुद्धता का कर्ता है, करण है, कर्म है, कर्मफल है - ऐसे चार भेद राग मिश्रित विचार में होने पर और उन भेदोंवाली अथवा रागवाली दशा जितना मेरा स्वरूप है - ऐसी मिथ्या भ्रान्ति का भी नाश करके शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति की है। ___ अनुकूल द्रव्य-क्षेत्र से आत्मा को लाभ होगा और प्रतिकूल द्रव्यक्षेत्र से आत्मा का नुकसान होगा - ऐसी मान्यता तो स्थूल भ्रान्ति है; किन्तु आत्मा की शुद्धता का राग रहित विचार करने पर कर्ता, करण आदि भेद पाड़कर उन भेद से अभेद आत्मा में जायेंगे और जो ज्ञान भेद में अटकता था, उससे धीरे-धीरे स्वभाव के अंदर आए - ऐसी मान्यता भी मिथ्या भ्रान्ति है। ऐसी भ्रान्ति का भी शुद्ध अभेद आत्मा के आश्रय से नाश किया है - ऐसा यह आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव में ही लीन रहने से अपनी स्वाभाविक महिमा के प्रकाशमानरूप सर्वदा मुक्त ही रहेगा।" ___ इसप्रकार इस छन्द में यह बताया गया है कि जिस आत्मा ने परपरिणति के उच्छेद और कर्ता-कर्म संबंधी भ्रान्ति के नाश से शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है; वह आत्मा स्वयं में ही समा जायेगा और दु:खयोसियार होगमुक्त चहेगार प्रकाशमान रहेगा। इसप्रकार यह द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार समाप्त होता है। .
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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