SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार अनुशीलन यह ज्ञेय अधिकार है। द्रव्यकर्म स्वतंत्ररूप से परिणमित होता है। और जीव भी स्वतंत्ररूप से राग करता है - ऐसा ज्ञेय का यथार्थ ज्ञान कराते हैं; इसीलिए वास्तव में पुद्गल द्रव्य ही द्रव्यकर्म का कर्ता है। तथा पुद्गल द्रव्य आत्मा के अशुद्ध परिणाम का कर्ता नहीं है अर्थात् कर्म का उदय आया; इसीलिए आत्मा को अशुद्ध परिणाम करना ही पड़ेगा - ऐसा आत्मा पराधीन नहीं है; क्योंकि पुद्गल, पुद्गलरूप से परिणमित होता है, किन्तु पुद्गल आत्मा को परिणमित नहीं कराता । अतः यह समझना चाहिए कि आत्मा आत्मस्वरूप से परिणमित होता है; किन्तु पुद्गलस्वरूप नहीं होता; इसलिए आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं है। " १४८ इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि भावकर्म का कर्ता आत्मा और द्रव्यकर्म का कर्ता पुद्गलद्रव्य की कार्माण वर्गणायें हैं; क्योंकि मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्म आत्मा की विकारी पर्यायें हैं और ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म कार्माण वर्गणारूप पुद्गल की पर्यायें हैं। यह कथन निश्चयनय का है। व्यवहारनय से निमित्त की अपेक्षा भावकर्म का कर्ता पौद्गलिक कर्म और द्रव्यकर्म का कर्ता जीव के मोह-राग-द्वेषरूप परिणाम हैं। यह तो आप जानते ही हैं कि जो परिणति जिस द्रव्य की हो, उसे उसी द्रव्य की कहना निश्चयनय है और उसे ही निमित्तादिक की अपेक्षा अन्य द्रव्य की कहना व्यवहारनय है। इस बात का उल्लेख मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार के निश्चय-व्यवहार संबंधी प्रकरण में स्पष्टरूप से किया गया है। इस गाथा में प्रतिपादित विषयवस्तु पर निश्चय - व्यवहार की उक्त परिभाषायें पूर्णत: घटित होती हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३९१ मेरा यह त्रिकाली ध्रुव परमात्मा देहदेवल में विराजमान होने पर भी अदेही है, देह से भिन्न है। -गागर में सागर, पृष्ठ- २० प्रवचनसार गाथा १२३-२४ 'भावकर्म का कर्ता आत्मा और द्रव्यकर्म का कर्ता पुद्गल' विगत गाथा में उक्त तथ्य को स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि आत्मा ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनारूप परिणमित होता है। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा । सापु णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा । । १२३ ।। गाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं । तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा ।। १२४ ।। ( हरिगीत ) करम एवं करमफल अर ज्ञानमय यह चेतना । ये तीन इनके रूप में ही परिणमे यह आतमा । । १२३ ।। ज्ञान अर्थविकल्प जो जिय करे वह ही कर्म है। अनेकविध वह कर्म है अर करमफल सुख- दुक्ख हैं ।। १२४ । । आत्मा चेतनारूप से परिणमित होता है और चेतना ज्ञानसंबंधी, कर्मसंबंधी और कर्मफलसंबंधी इसप्रकार तीनप्रकार की कही गई है। अर्थविकल्प ज्ञान है, जीव के द्वारा जो किया जा रहा हो, वह कर्म है और वह अनेकप्रकार का है। सुख या दुःख कर्मफल कहे गये हैं। इन गाथाओं के भाव आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - " आत्मा का स्वधर्मव्यापकपना चेतना ही है; इसलिए चेतना ही आत्मा का स्वरूप है; क्योंकि आत्मा चेतनरूप परिणमित होता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा का कोई भी परिणाम चेतना का उल्लंघन नहीं करता । चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप से तीनप्रकार की होती
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy