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________________ प्रवचनसार अनुशीलन आत्मा स्वयं परिणामस्वरूप है; इसकारण परिणाम और परिणामी में भेद नहीं है। प्रत्येक द्रव्य की अपनी क्रिया से तन्मयता होती है; इसकारण जीव की परिणमनरूप क्रिया जीवमय ही होती है। जीव की उक्त क्रिया का नाम ही भावकर्म है; इसलिए निश्चय से उसका कर्ता जीव को ही कहा गया है। इसीकारण आत्मा द्रव्यकर्मों का अकर्ता है; क्योंकि पुद्गल कर्म का कर्ता पुद्गल ही है। (दोहा) भावकरम आतम करै यह हम जानी ठीक। दरव करम अब को करै यह संदेह अधीक।।११०।। हमने यह तो जान ही लिया है कि भावकर्म का कर्ता आत्मा है और यह ठीक ही है; किन्तु अब यह बताइये कि द्रव्यकर्म का कर्ता कौन है ? हमें इस बात में अधिक संदेह है। (मनहरण कवित्त) जैसे भावकर्म को करैया जीवराजत है, पुग्गल नताको करैकभी यों पिछानियो। निज निज भाव के दरब सब करता है, पर के सुभाव को न करै कोऊमानियौ ।। यह तो प्रतच्छ भेदज्ञान तैं विलच्छ देखो, सबै निज कारज के करता प्रमानियो । दरव करम पुद्गल पिंड ता” याको, करतार पुग्गल दरव सरधनियौ ।।१११।। भावकर्म का कर्ता जीव होता है, उसका कर्ता पुद्गल कभी भी नहीं होता; क्योंकि सभी द्रव्य अपने-अपने परिणामों के कर्ता हैं, पर के भावों को कोई भी नहीं करता - यह मानना ही ठीक है। यह बात तो भेदज्ञान से भिन्न-भिन्न करके प्रत्यक्ष दिखाई देती है कि सभी द्रव्य निजकार्यों के कर्ता हैं। द्रव्यकर्म पुद्गल के स्कंध हैं; इसलिए उनका कर्ता पुद्गल को ही मानना चाहिए। गाथा-१२२ पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को १ इकतीसा सवैया में इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "दया-दान-पूजा के भाव जीव स्वयं करता है; इसीलिए वे स्वयं ही आत्मा हैं। समयसार में द्रव्यदृष्टि कराने के लिए राग अपना त्रिकाली स्वरूप नहीं है, इस अपेक्षा राग को अचेतन कहा है; किन्तु यहाँ तो पर्याय का ज्ञान कराना हैइसलिए विकारी भाव को जीवमयी कहा है; इस क्रिया को कर्म माना गया है अर्थात् उसे भावकर्म कहा गया है। जीव उसका कर्ता है; किन्तु द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं। जितने प्रमाण में जीव राग-द्वेष करता है, उतने प्रमाण में ही द्रव्यकर्म बंधते हैं । मंद राग-द्वेष करे तो कर्म मंद बंधते हैं और तीव्र राग-द्वेष करे तो कर्म तीव्र बंधते हैं - ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने पर भी जीव कर्म का कर्ता नहीं है। __ आत्मा के परिणाम जैसे कि मिथ्यात्व, राग-द्वेष-अव्रत के भाव, प्रमाद के भाव, आत्मा के प्रदेशों का कंपन होना यह वास्तव में स्वयं आत्मा है। यहाँ पर्याय को आत्मा से अभेद करके कहा है कि राग-द्वेष आदि के परिणाम आत्मा ही हैं, क्योंकि आत्मा स्वयं परिणामी है अर्थात् परिणमनवाला है। दया-दान आदि शुभ परिणाम और हिंसा-झूठ-चोरी आदि अशुभ परिणाम का करनेवाला आत्मा स्वयं ही है। इसीलिए आत्मा अपने परिणाम से पृथक् नहीं है, अनन्य है अर्थात् आत्मा अपने परिणाम से तन्मय है और वह परिणाम जीवमयी ही क्रिया है; किन्तु कर्म के कारण अथवा बाह्य संयोगों के कारण आत्मा के परिणाम नहीं होते; इसप्रकार पर्याय का यथार्थ ज्ञान कराया है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३८९ २. वही, पृष्ठ-३८९-३९०
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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