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________________ १५० प्रवचनसार अनुशीलन है। इसमें ज्ञानपरिणति ज्ञानचेतना, कर्मपरिणति कर्मचेतना और कर्मफलपरिणति कर्मफलचेतना है। ___ अर्थविकल्प ज्ञान है और स्व-पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है। अर्थ के आकारों का अवभासन विकल्प है। जिसप्रकार दर्पण के निज विस्तार में स्व और पर के आकार एकसाथ प्रकाशित होते हैं; उसीप्रकार जिसमें एक ही साथस्व-पराकार अवभासित होते हैं - ऐसा अर्थविकल्प ज्ञान है। जो आत्मा के द्वारा किया जाता है, वह कर्म है। प्रतिक्षण उस-उस भाव से परिणमित होते हुए आत्मा के द्वारा किये जानेवाला जो भाव है, वही आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है। यद्यपि वह कर्म एक प्रकार का ही है; तथापि द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्भाव और असद्भाव के कारण अनेकप्रकार का हो जाता है। उक्त कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुख कर्मफल है। द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के असद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्वलक्षण स्वभावभूत सुख है और द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल विकारभूत दुख है; क्योंकि वहाँ सुख के लक्षण का अभाव है। इसप्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफल का स्वरूप निश्चित हुआ।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुसरण करते हैं। हाँ, वे कर्मचेतना के तीन प्रकार अवश्य बताते हैं; जो शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोगरूप ही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं ही पंचास्तिकाय गाथा ३९ में कहते हैं कि सभी स्थावर जीव कर्मफल को वेदते हैं; त्रसजीव कर्म सहित कर्मफल को वेदते हैं और जो प्राणों का अतिक्रम कर गये हैं; वे सर्वज्ञ भगवान ज्ञान को वेदते हैं। यहाँ परिपूर्ण ज्ञानचेतना की अपेक्षा केवलज्ञानी अरहंत-सिद्ध भगवन्तों को ही ज्ञानचेतना बताई जा रही है। आंशिक ज्ञानचेतना की गाथा-१२३-२४ १५१ अपेक्षा से साधुओं, व्रती श्रावकों तथा अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावकों को भी ज्ञानचेतना कही जाती है। यह सब विवक्षाभेद ही है, मतभेद नहीं। __कविवर वृन्दावननदासजी इन गाथाओं के भाव को एक-एक छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (सवैया) आतम निज चेतन सुभाव करि, प्रनवतु है निहचै निरधार । सो चेतनता तीन भाँति है, यों वरनी जिनचंद उदार ।। ज्ञानचेतना प्रथम बखानी.दुतिय करमचेतना विचार। त्रितिय करमफलचेतनता है, वृन्दावन ऐसे उच्चार ।।११२।। आत्मा अपने स्वभाव से ही परिणमित होता है - यह निश्चय का कथन है। जिनेन्द्र भगवान ने चेतना तीनप्रकार की बताई है। पहली ज्ञानचेतना, दूसरी कर्मचेतना और तीसरी कर्मफलचेतना है। ऐसा वृन्दावन कवि कहते हैं। __(मनहरण कवित्त) जीवादिक सुपर पदारथ को भेदजुत, तदाकार एकै काल जानै जो प्रतच्छ है। सोई ज्ञानचेतना कहावत अमलरूप, वृन्दावन तिहूँकाल विशद विलच्छ है ।। जीव के विभाव को अरंभ कर्मचेतना है, दर्वकर्मद्वार जामें भेदन को गच्छ है। सुख-दुखरूप कर्मफल अनुभवै जीव, कर्मफलचेतनासोभाषी श्रुति स्वच्छ है ।।११३।। जीवादिक स्व-पर पदार्थों को एक काल में भेद सहित तदाकार प्रत्यक्ष जानना अमल ज्ञानचेतना है; वह ज्ञानचेतना तीनों काल अत्यन्त निर्मल और विलक्षण होती है। जिसमें द्रव्यकर्मों के द्वारा अनेक भेद पड़ते हैं; ऐसी कर्मचेतना जीवों के विभाव भावरूप है। जीवों द्वारा सुखदुखरूप कर्मफल का अनुभव करना कर्मफल चेतना है। शास्त्रों में ऐसा अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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