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________________ १४० प्रवचनसार अनुशीलन संसार दो समय का नहीं है, एक ही समय का है। पूर्व के संसार का व्यय होता है और नया संसार उत्पन्न होता है। संसार स्थित एकरूप रहे - ऐसा उसका स्वभाव नहीं है।' निगोद से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक संसार है, यह अपने आत्मा के अपराध के कारण है; किन्तु कर्म या शरीर आदि संसार का कारण है ही नहीं। द्रव्यदृष्टि से आत्मा में संसार है ही नहीं और पर्यायदृष्टि से अवस्था में संसार है। यहाँ जीव का एकरूप नहीं रहना ही संसार का कारण है। मनुष्य का शरीर मनुष्य गति नहीं है, अपितु आत्मा में मनुष्यरूप होने की योग्यता का नाम ही मनुष्यपर्याय है।' परवस्तु तो आत्मा में अत्यंत अभावस्वरूप है, वह तो छूटी हुई पड़ी है। कर्म, शरीर, पुत्रादि अभावस्वरूप ही हैं, उनका क्या त्याग करना ? ज्ञाता-दृष्टास्वभाव को भूलकर शरीर, स्त्री, पुत्रादि मेरे हैं - ऐसे ममताभाव पर्याय में ग्रहण करता है और पूर्व के विकारी भाव को त्यागता है। ऐसे अज्ञान, राग, द्वेष के भाव को तथा गति की योग्यता के भाव को संसार की एकसमय की विकारी क्रिया कही है। 'मैं स्वयं ज्ञानानन्दस्वभावी हूँ' - ऐसा ज्ञान तो था ही अर्थात् अभिप्राय से संसार छूट गया था; किन्तु अस्थिरता के राग-द्वेष छोड़कर आत्मा में स्थिर हुए तो उन्होंने कुटुम्ब - कबीला छोड़ा - ऐसा कहा जाता है। यहाँ भी कर्म के कारण संसार नहीं है; क्योंकि यदि कर्म के कारण संसार हो तो कर्म छूटें, तब संसार छूटे। अपने अज्ञान भाव से संसार है; अज्ञान छोड़े, तब संसार छूटे और निर्विकारी दशा प्राप्त करें। 4" यद्यपि इस गाथा में यही कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु के समान भगवान आत्मा भी द्रव्यदृष्टि से अवस्थित (सदा एकरूप) और पर्यायदृष्टि से अनवस्थित (प्रतिसमय परिवर्तनशील) है; तथापि यहाँ अवस्थित होने की अपेक्षा अनवस्थित होने पर अधिक वजन दिया गया है। तात्पर्य यह है कि यहाँ पर्यायदृष्टि की मुख्यता से कथन किया गया है। गाथा और टीका - दोनों के प्रतिपादन में यही टोन है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ ३८१ ३. वही, पृष्ठ-३८२ ४. वही, पृष्ठ-३८२ २. वही, पृष्ठ-३८१ ५. वही, पृष्ठ-३८२ प्रवचनसार गाथा १९२१ विगत गाथा में यह बताने के बाद कि संसार में कोई सर्वथा अवस्थित नहीं है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि इस संसार में आत्मा से देह के संबंध का क्या कारण है ? गाथा मूलतः इसप्रकार है - आदा कम्ममलिमसो परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं । दत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो ।। १२१ ।। ( हरिगीत ) कर्ममल से मलिन जिय पा कर्मयुत परिणाम को । कर्मबंधन में पड़े परिणाम ही बस कर्म हैं ।। १२१ ।। कर्म से मलिन आत्मा कर्मसंयुक्त परिणाम को प्राप्त करता है; उससे कर्म चिपक जाते हैं; इसलिए परिणाम ही कर्म हैं। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " द्रव्यकर्मों के चिपकने का हेतु आत्मा का संसार नामक विकारी परिणाम हैं। अब प्रश्न होता है कि उक्त परिणाम का हेतु कौन है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि उसका हेतु द्रव्यकर्म हैं, क्योंकि द्रव्यकर्म संयोग से ही संसार नामक विकारी परिणाम देखा जाता है। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसा मानने पर तो इतरेतराश्रय नामक दोष आयेगा ? इसके उत्तर में कहते हैं कि नहीं, ऐसा नहीं होगा; क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकर्म के साथ संबंद्ध आत्मा का जो पहले का द्रव्यकर्म है; उसको ही यहाँ हेतुरूप से ग्रहण किया है। इसप्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कार्य और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारण है आत्मा का ऐसा परिणाम उपचार से द्रव्यकर्म ही है और आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है। " -
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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