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________________ प्रवचनसार अनुशीलन हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव स्पष्ट करते आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुसरण करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा और टीका के भाव को १२ दोहे और २ मनहरण कवित्त - इसप्रकार १४ छन्दों में विस्तार से समझाते हैं; जो मूलत: पठनीय है; क्योंकि विस्तारभय से उन सभी को यहाँ दिया जाना संभव नहीं है, फिर भी नमूने के तौर पर कुछ छन्द प्रस्तुत हैं - (दोहा) १४२ तुम भाषत हो हे सुगुरु जीवकरमसंजोग । सो क्या प्रथम पृथक हुते पाछे भयो नियोग ।। १०३ ।। जासु नाम संजोग है ताको तो यह अर्थ । जुदी वस्तु मिलि एक है कीजे अर्थ समर्थ ।। १०४ ।। हे गुरुदेव ! आपने 'जीवकरमसंयोग' पद का प्रयोग किया है; तो क्या ये जीव और कर्म पहले अलग-अलग थे और बाद में इनका संयोग हुआ है; क्योंकि संयोग शब्द का तो यही अर्थ होता है कि भिन्न-भिन्न वस्तुएँ मिलकर एक हों । अतः कृपा कर इसका मर्म समझाइये | ( मनहरण कवित्त ) जैसे तिलीमाहिं तैल आगि है पखानमाहिं, छीरमाहिं नीर हेम खानि में समल है। इन्हें जब कारन तैं जुदे होत देखें तब, जानै जो मिलाप में जुदे ही जुगल है ।। तैसे ही अनादि पुग्गलीक दर्व करम सों, जीव को संबंध लसै एक थल रल है। भेदज्ञान आदि शिव साधन तैं न्यारो होत, ऐसे निरबाध संग सधत विमल है ।। १०५ ।। जिसप्रकार तिलों में तेल, पत्थर में आग, दूध में पानी और खान में समल सोना आरंभ से ही हैं। कारण पाकर जब इन्हें जुदे होता देखते हैं; तब पता चलता है कि ये मिली हुई अवस्था में भी जुदे-जुदे थे । उसीप्रकार पौद्गलिक द्रव्यकर्मों से जीव का एकक्षेत्रावगाह संबंध गाथा - १२१ १४३ अनादि से ही हैं। भेदज्ञानपूर्वक शिवसाधन करने पर ये जुदे-जुदे होते हैं। इसप्रकार इनका संयोग निर्बाध सिद्ध होता है। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं। स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "अशुद्ध उपादान अथवा अपनी एक समय की विकारी योग्यता नये द्रव्यकर्मबंध का कारण है। अब अशुद्ध उपादान का निमित्त कौन है - यह बताते हैं । पुराना द्रव्यकर्म अशुद्धता का निमित्त है। स्वयं ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव को भूलता है और संयोग का आश्रय करके राग-द्वेष करता है तो पुराना द्रव्यकर्म हेतु है अर्थात् निमित्त है ऐसा कहा जाता है। उपादान कारण तो स्वयं की योग्यता है और निमित्त कारण जड़कर्म है। विकारी परिणाम नहीं हो तो पूर्व कर्म निमित्त भी नहीं कहलाते और नये कर्म भी नहीं बंधते । किन्तु विकारी परिणाम करता है, इसकारण नये कर्म का बन्ध उनका कार्य है और पूर्व के द्रव्यकर्म उसके कारणभूत हैं। ऐसे आत्मा के परिणाम होने से भावकर्म को द्रव्यकर्म का कारण उपचार से कहा है। " इस गाथा में यही कहा गया है कि पुराना द्रव्यकर्म जब उदय में आता है तो उसके निमित्त और अपने अशुद्ध-उपादान से मोह राग-द्वेषरूप भावसंसार होता है। उक्त मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त और अपनी उपादानगत योग्यता से पौद्गलिक कार्माण वर्गणायें कर्मरूप से परिणमित हो आत्मा से बंध जाती है। 'द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म' - ऐसा मानने पर अर्थात् द्रव्यकर्मों का भावकर्म के आश्रय से और भावकर्मों का द्रव्यकर्मों के आश्रय से उत्पन्न होना मानने पर इतरेतराश्रय दोष आ सकता था; किन्तु यहाँ यह दोष नहीं है; क्योंकि यहाँ जिन द्रव्यकर्मों के उदय से भावकर्म हुए हैं; भावकर्म के उदय से बंधनेवाले द्रव्यकर्म वे नहीं हैं; अपितु नये ही हैं। अत: उक्त मान्यता पूर्णतः निर्दोष है। १. दिव्यध्वनिसार भाग - ३, पृष्ठ-३८४ २. वही, पृष्ठ-३८७
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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