SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ प्रवचनसार अनुशीलन इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी १ छप्पय और १मनहरण कवित्त - इसप्रकार २ छंदों में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - (छप्पय) तिस कारन संसार माहिं थिर दशा न कोई। अथिररूप परजैसुभाव चहुंगति में होई ।। दरवनि की संसरनक्रिया संसार कहावै। एक दशा को त्यागि, दुतिय जोदशागहावै।। या विधि अनादि ते जगत में तन धरि चेतन भमत है। निज चिदानंद चिद्रूप के ज्ञान भये दुख दमत है ।।८३ ।। विगत गाथा में कहे गये कारणों से यह बात सिद्ध होती है कि संसार में कोई भी दशा स्थिर नहीं है; क्योंकि चतुर्गति में पर्याय का स्वभाव अस्थिर ही होता है । एक दशा को छोड़कर दूसरी दशा को ग्रहण करनेरूप द्रव्यों की संसरणक्रिया का नाम ही तो संसार है। __ इसप्रकार इस संसार में अनादि से यह चेतन आत्मा शरीर धारण करके परिभ्रमण कर रहा है और चैतन्यस्वरूप निज चिदानन्द आत्मा के ज्ञान होने पर दुखों का दमन हो जाता है। (मनहरण कवित्त) ताही जगतमाहिं ऐसोकोऊ काय नाहि, जाको अवधारि जीव एकरूप रहैगो। याको तोसुभाव है अथिररूपसदाही को, ऐसो सरधान धरै मिथ्यामत बहैगो।। जीव की अशुद्ध परनतिरूप क्रिया होत, ताको फल देह धारि चारों गति लहैगो। याको नाम संसार बखाने सारथक जिन, जाकी भवथिति घटी सोई सरदहैगो ।।९४।। इसीकारण इस जगत में ऐसा कोई शरीरधारी नहीं है; जिसके आधार पर जीव की एकरूपता निर्धारित की जा सके; क्योंकि इसका स्वभाव तो सदा अस्थिरतारूप ही है। ऐसा श्रद्धान करनेवाला मिथ्यामान्यता को छोड़ देगा । जीव की जो अशुद्धपरिणतिरूप क्रिया होती है, उसका फल गाथा-१२० १३९ देहधारी प्राणी चारों गतियों में घूम-घूमकर प्राप्त करेगा। इसी का नाम संसार है और यह नाम सार्थक है; क्योंकि संसरण को ही तो संसार कहते हैं। इस बात का विश्वास वही करेगा: जिसका संसार में रहने का काल कम हो गया होगा। पण्डित देवीदासजी इस गाथा का भाव इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (सवैया इकतीसा) जीव द्रव्य है सु जार्थं जद्यपि सु थिर आप परजाय भेदसौं तथापि सो अथिर है। कोई भी सुभाव विधि कौन हुँ न थिर रूप न ही नर-नारकादि की सु गति चिर है ।। भ्रम्यौ जीव पस्यो सो विभावता के चक्रमाहि पाटि वांधि जैसे कोल्हू को सुबैल फिर है। पीछिलीदसाकौंत्यागि आगलीदसासौंलागि जल मैं कलोल ज्यों झकोर तव हि रहै ।।४९।। यद्यपि जीव द्रव्य द्रव्यस्वभाव से स्वयं सुस्थिर (अवस्थित) है; तथापि पर्यायभेद से अस्थिर (अनवस्थित) भी है। स्वभाव से कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है क्योंकि नर-नारकादिपर्यायें चिरकाल से नहीं हैं। विभावता के चक्कर में पड़कर यह संसारी जीव चारगतिरूप संसार में उसीप्रकार भ्रमण कर रहा है कि जिसप्रकार आँखों पर पट्टी बांधकर कोल्हू में जुता बैल एक ही चक्कर में गोल-गोल घूमता रहता है। जिसप्रकार दरिया के पानी में पत्थर मारने से कल्लोले बनती-बिगड़ती रहती हैं; उसीप्रकार यह जीव पूर्वपर्याय को छोड़कर, नई पर्याय को धारण करके परिभ्रमण करता रहता है। स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “आत्मा का शुद्धस्वभाव तो ज्ञानानन्द है । इस स्वभाव को भूलकर अपनी पर्याय में विकारी भाव करता है, वह संसार है । स्त्री, कुटुम्ब आदि संसार नहीं है; इसीतरह अपने द्रव्य व गुण में भी संसार नहीं है। द्रव्य व गुण तो शुद्ध ही है, स्वयं की पर्याय में चार गति होना वह संसार है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३८०
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy