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प्रवचनसार गाथा ११७
विगत गाथा में यह समझाया गया था कि वीतराग भावों का फल तो सिद्धदशारूप एक मुक्त दशा ही है; ये मनुष्यादि पर्यायों रूप विविध दशायें तो रागादि क्रिया का ही फल हैं और अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि यह नाम नामक कर्म ही अपने स्वभाव से जीव के स्वभाव का पराभव करके मनुष्य, तिर्यंच, नारक और देव इन पर्यायों को करता है। गाथा मूलतः इसप्रकार है -
कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण । अभिभूयं णरं तिरियं णेरइय वा सुरं कुणदि ।। ११७ ।। ( हरिगीत )
नाम नामक कर्म जिय का पराभव कर जीव को ।
नर नारकी तिर्यंच सुर पर्याय में दाखिल करे ।। ११७ ।। नाम नामक कर्म अपने स्वभाव से जीव के स्वभाव का पराभव करके मनुष्य, तिर्यंच, नारक और देव पर्यायों को धारण करता है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " वस्तुत: आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से मोह सहित क्रिया ही आत्मा का कर्म है, कार्य है; उसके निमित्त से द्रव्यकर्मरूप परिणमन करता हुआ पुद्गल भी कर्म है। उस पुद्गल कर्म की कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायें मूलकारणभूत जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से क्रियाफल ही हैं; क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्गलों को कर्मपने का अभाव होने से उस पुद्गल कर्म की कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायों का अभाव होता है।
जिसप्रकार दीपक की लौ के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जानेवाला दीपक ज्योति का कार्य है; उसीप्रकार कर्मस्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जानेवाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं।"
गाथा- ११७
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आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को दीपक के उदाहरण के माध्यम से सर्वांग इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
“जिसप्रकार अग्निरूपी कर्ता, कर्मरूपी तैल के स्वभाव का तिरस्कार कर बत्ती के माध्यम से दीपक की ज्योतिरूप से परिणमन करता है; उसीप्रकार कर्माग्निरूपी कर्ता शुद्धात्मस्वभावरूप तैल का तिरस्कार करके बत्तीरूपी शरीर के माध्यम से दीप शिखा के समान मनुष्य, नारक आदि पर्यायरूप परिणमन करता है। इससे ज्ञात होता है कि मनुष्यादि पर्यायें निश्चयनय से कर्मजनित हैं ।"
वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ( मनहरण कवित्त )
नाम कर्म आपनै सुभाव सों चिदातमा के,
सहज सुभाव को आच्छाद करि लेत है । नर तिरजंच नरकौर देवगति माहिं,
नाना परकार काय सोई निरमेत है ।। जैसे दीप अगनि सुभाव करि तेल को सु
भाव दूर करिके प्रकाशित धरत है। ज्ञानावरनादि कर्म जीव को सुभाव घाति,
मनुष्यादि परजाय तैसे ही करेत है ।। ९० ।। नाम नामक कर्म अपने स्वभाव के द्वारा आत्मा के सहज स्वभाव को आच्छादित कर लेता है और मनुष्य, तिर्यंच, नरक और देवगति में अनेक प्रकार के शरीर का निर्माण करता है।
जिसप्रकार दीपक अपने जलाने के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके प्रकाश बिखेरता है; उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म जीव के स्वभाव का घात कर मनुष्यादि पर्याय को करता है।
पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ( कवित्त )
नामकर्म तिहि कौ सुभाव गति नारकादि परिनमन अनादि । सुद्ध स्वरूप जीव कौ राख्यौ निज स्वभाव आछादि ।। नर नारक तिरजंच देव के करि स्वरूप गति गति उतपादि । यह संसार रूप दुखदाइक अचल वोझु सिर दियो सु लादि ।। ४६ ।।