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गाथा-११६
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प्रवचनसार अनुशीलन इस लोक में ऐसी कोई सांसारिक पर्याय नहीं है, जो रागादि विभावभावों के बिना उत्पन्न हुई हो; क्योंकि रागादिभावरूप क्रिया अफल नहीं होती, उसका फल चारों गतियों में परिभ्रमण है।
जिसप्रकार रूक्ष और स्निग्ध परमाणु स्वभाव से स्कंध में बंधन को प्राप्त होते हैं; उसीप्रकार संसारी जीवों को भी जानना चाहिए। किन्तु आत्मा का वीतरागतारूप परमधर्म तो सदा ही बंधफल से रहित है; अत: आत्मा का वह सर्वोत्कृष्ट धन है।
इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए पण्डित देवीदासजी ने १ दोहा और १ सवैया इकतीसा लिखा है; जिसमें से दोहा इसप्रकार है -
(दोहा) असदभूत परजाय जो लखौ आतमा पास ।
मोह क्रिया तिहि कौसफल सोहै जगत विलास ।।४४।। यदि आत्मा के पास असद्भूत पर्याय दिखाई दे तो यह समझना चाहिए कि यह मोह की क्रिया है और इसका फल संसार परिभ्रमण है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
___ "प्रत्येक आत्मा और परमाणु आदि अनादि-अनंत. स्वत:सिद्ध होने से स्वचतष्टय से हैं, किन्तु परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नहीं हैं; इसीलिए कोई किसी दूसरे का कुछ कर दे - ऐसी वस्तुस्थिति किसी भी प्रकार से संभव नहीं है; क्योंकि एक में दूसरे का अत्यंत अभाव है।
संसारी जीव की विकारी क्रिया वास्तव में स्वभाव ही है; क्योंकि यह स्वयं से ही प्राप्त हुई है, पर से नहीं। निश्चयकारण कार्यरूप हो तो दूसरे को व्यवहारकारण कहा जाता है, अनारोप हो तो आरोप दिया जा सकता है।
जितना राग, उतनी स्वरूप में असावधानी है और भगवान आत्मा में जितनी सावधानी है, उतना धर्म है और उससे च्युत होकर जितना बहिर्मुख है, उतना मोह के साथ मिला हुआ राग-द्वेषमय परिणाम है; यह जीव का वर्तमान पर्यायस्वभाव है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३४७
२. वही, पृष्ठ-३५३
जिसप्रकार दूसरे अणु के साथ जुड़े हुऐ किसी अणु की परिणति दो अणु के बने हुए स्कंधरूप कार्य को उत्पन्न करनेवाली है; उसीप्रकार वर्तमान पर्याय में स्व को छोड़कर परभावरूप मोह के साथ मिले हुए आत्मा को राग की उत्पत्ति होती है और वह मनुष्य आदि कार्य को उत्पन्न करनेवाली होने से सफल ही है।' __ अपने ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव के साथ अभेद होकर जो अविकारी शांत दशा प्रगट हुई; वह परमधर्म कहलाती है और यह मुक्ति का कारण है। इस क्रिया के उत्पन्न होने से भव नहीं रहता; इसकारण वह गति की निष्पादक नहीं है, संसार का फल नहीं देती; इसीलिए उसे अफल कहा है।
जिसे ऐसी अंतरंग दशा प्रगट होती है; उसे गति नहीं फलती अर्थात् वह संसार के लिए अफल है। ज्ञानस्वभावी क्रिया मोह रहित होने के कारण गति के फल को उत्पन्न नहीं करती अर्थात् संसार नहीं फलता और दर्शनमोह सहित क्रिया चार गति का फल देती है। मोह सहित भाव एक प्रकार के नहीं होते, अपितु अनेक प्रकार के होते हैं; इसकारण उनके फलरूप मनुष्यगति, देवगति आदि पर्यायें टंकोत्कीर्ण शाश्वत एकरूप नहीं होतीं, अपितु अनेकरूप होती हैं, मोक्षगति टंकोत्कीर्ण शाश्वत एकरूप है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि आत्मा की चैतन्यपरिणतिरूप क्रिया यदि मोह रहित हो तो मनुष्यादि संसारी पर्यायरूप फल उत्पन्न नहीं करती और मोहसहित हो तो मनुष्यादि पर्यायरूप फल उत्पन्न करती है।
चूँकि मोह सहित भाव अनेकप्रकार के होते हैं; इसलिए उनके फल में उत्पन्न होनेवाली मनुष्यादि पर्यायें भी टंकोत्कीर्ण,शाश्वत और एकरूप नहीं होती; अनेकप्रकार की होती हैं।
तात्पर्य यह है कि संसार में जीवों की परिणति में संयोगों की जो विविधता दिखाई देती है; उसका कारण उनके होनेवाले मोह-राग-द्वेष भावों की विविधता है। मुक्तदशा में सभी जीवों के एकसा वीतरागभाव होने से उनके संयोगों में विविधता नहीं होती। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३५५ २. वही, पृष्ठ-३५८ ३. वही, पृष्ठ-३६१