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________________ प्रवचनसार गाथा ११६ विगत गाथा ११५ में सप्तभंगी का स्वरूप स्पष्ट करके अब इस गाथा में यह समझाते हैं कि मनुष्यादि पर्यायरूप विविध दशायें रागादिभावों का फल हैं; क्योंकि ये अनेकरूप दशायें वीतराग भावों का फल तो हो ही नहीं सकती। गाथा मूलतः इसप्रकार है - एसोत्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । किरिया हि णत्थि अफला धम्मोजदि णिप्फलोपरमो । । ११६ ।। ( हरिगीत ) पर्याय शाश्वत नहीं परन्तु है विभावस्वभाव तो । है अफल परमधरम परन्तु क्रिया अफल नहीं कही । । ११७ । । मनुष्यादि पर्यायों में 'यही' ऐसी कोई शाश्वत पर्याय नही है; क्योंकि संसारी जीवों के स्वभावनिष्पन्न क्रिया नहीं है- ऐसी बात नहीं है । तात्पर्य यह है कि संसारी जीवों के विभावस्वभाव से उत्पन्न होनेवाली राग-द्वेषमय क्रिया होती ही है। यदि परम धर्म अफल है तो राग-द्वेषमय क्रिया अवश्य अफल नहीं है। तात्पर्य यह है कि वीतरागभावरूप क्रिया तो मनुष्यादि पर्यायरूप फल उत्पन्न करती नहीं है; पर राग-द्वेषरूप क्रिया तो मनुष्यादि पर्यायरूप फल उत्पन्न करती ही है। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इस लोक में अनादि कर्म पुद्गल की उपाधि के सद्भाव के कारण जिसके प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है - ऐसे संसारी जीव की रागद्वेषरूप क्रिया वस्तुतः स्वभाव (विभावस्वभाव) निष्पन्न ही है; इसलिए उसके मनुष्यादि पर्यायों में से कोई भी पर्याय 'यही है' - ऐसी टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्यायें पूर्व-पूर्व पर्यायों के नाश में प्रवर्तमान क्रिया के फलस्वरूप होने से उत्तर-उत्तर पर्यायों के द्वारा नष्ट होती हैं। गाथा - १९६ १२१ राग-द्वेषरूप क्रिया का फल तो मोह के साथ मिलन का नाश न हुआ होने से मानना चाहिए; क्योंकि प्रथम तो वह क्रिया चेतन की पूर्वोतर दशा से विशिष्ट चैतन्यपरिणामस्वरूप है। दूसरे जिसप्रकार दूसरे अणु के साथ युक्त किसी अणु की परिणति द्वि-अणुक कार्य की निष्पादक है; उसीप्रकार मोह के साथ मिलित आत्मा के संबंध में मनुष्यादि कार्य की निष्पादक होने से सफल ही है। जिसप्रकार जिसका संबंध दूसरे अणु के साथ नष्ट हो गया है - ऐसे अणु की परिणति द्वि-अणुककार्य की निष्पादक नहीं है; उसीप्रकार मोह के साथ मिलन का नाश होने पर द्रव्य की परमस्वभावभूत होने से परमधर्म कही जानेवाली क्रिया मनुष्यादि कार्य की निष्पादक न होने से अफल ही है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुकरण करते हैं; पर अन्त में मतार्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि इससे सांख्यमत का निराकरण भी हो जाता है। सांख्य आत्मा को रागादि भावों का सर्वथा अकर्ता मानते हैं; पर जैनदर्शन के अनुसार यद्यपि शुद्धनिश्चयनय से आत्मा रागादि का कर्ता नहीं है; तथापि अशुद्धनिश्चयनय से आत्मा रागादि भावों का कर्ता है और वे रागादि भाव भी अफल नहीं हैं; क्योंकि उनसे मनुष्यादि पर्यायरूप विविध पर्यायों की उत्पत्ति होती है। वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - ( मनहरण कवित्त ) ऐसी परजाय कोऊ नाहीं है जगत में जो, रागादि विभाव बिना भई उतपन है। रागादि विभाव क्रिया अफल न होय कहूं, याको फल चारों गतिमाहिं भरमन है । जैसे परमानू रूछ चीकन सुभाव ही सों, बंध खंध माहिं तैसे जानो जगजन है। जातैं वीतराग आतमीक धर्म धर्म सो तो, बंधफल सों रहित तिहूँकाल धन है ।।८९।।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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