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प्रवचनसार गाथा १०९ विगत गाथा में यह बताया गया था कि सर्वथा अभाव का नाम अतद्भाव नहीं है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि सत्ता गुण है और द्रव्य गुणी है - इसप्रकार इनमें गुण-गुणी का संबंध है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - जोखलु दव्वसहावोपरिणामोसोगुणोसदविसिट्रो। सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति जिणोवदेसोयं ।।१०९।।
(हरिगीत) परिणाम द्रव्य स्वभाव जोवह अपृथक्सत्तासे सदा।
स्वभाव में थित द्रव्य सत् जिनदेव का उपदेश यह ।।१०९।। जो द्रव्य का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वभावभूत परिणाम है; वह परिणाम सत्ता से अभिन्न गुण है। स्वभाव में स्थित होने से द्रव्य सत् है - ऐसा जिनदेव का उपदेश है।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार व्यक्त करते हैं -
“स्वभाव में अवस्थित होने से द्रव्य सत् है - ऐसा पहले (९९वीं गाथा में) कहा था और वहीं यह भी कहा था कि परिणाम द्रव्य का स्वभाव है। अब यहाँ यह सिद्ध किया जा रहा है कि जो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है, वही सत् से अभिन्न गुण है।
द्रव्य के स्वरूप का वृत्तिभूत अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथन के द्वारा सत् शब्द से कहा जाता है; उस अस्तित्व से अनन्य गुण ही द्रव्यस्वभावभूत परिणाम है; क्योंकि द्रव्य की वृत्ति तीन काल के समय को स्पर्श करती होने से प्रतिक्षण उस-उस स्वभावरूप परिणमित होती है।
इसप्रकार द्रव्य का स्वभावभूत उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणाम द्रव्य की अस्तित्वभूत वृत्तिस्वरूप होने से सत् से अभिन्न द्रव्यविधायक गुण ही है। इसप्रकार सत्ता और द्रव्य का गुण-गुणीपना सिद्ध होता है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट
गाथा-१०९ करते हुए तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुसरण करते हैं। हाँ, यह अवश्य है कि जैसी कि उनकी शैली है, तदनुसार वे सभी प्रकरणों को आत्मद्रव्य पर घटित करके समझाते हैं; इस गाथा में भी ऐसा ही हुआ है।
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(मनहरण) द्रव्य को सुभाव परिनाम जु है निश्चैकरि,
अस्तित स्वरूप सोई सत्ता नाम गुन है। सर्व गुन में प्रधान फहरै निशान जाको,
उतपाद-वय-धुवसंजुत सुगुन है।। ताही असतित्तरूप सत्ता में विराजै दर्व,
यात सत नाम द्रव्य पावत अपुन है। ऐसे सत्ता गुन औ दरव गुनी एकताई,
साधी कुन्दकुन्द वृन्द वन्दत निपुन है ।। निश्चय से द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम अस्तित्व है। वह अस्तित्व ही सत्ता नामक गुण है। यह गुण सर्व गुणों में प्रधान है और इसकी ध्वजा फहराती ही रहती है। यह गुण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप है। इस अस्तित्व रूप सत्ता में ही द्रव्य विराजमान रहता है और इसीकारण द्रव्य का सत् नाम पड़ा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसे सत्ता गुण और गुणी द्रव्य में एकता सिद्ध की है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि मैं उन निपुण कुन्दकुन्दाचार्य को वंदन करता हूँ।
पण्डित देवीदासजी भी एक छन्द में इस गाथा के भाव को इसीप्रकार प्रस्तुत कर देते हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"उत्पाद-व्यय-ध्रुव के परिणाम धारावाही निरंतर चला करते हैं। यदि वे परिणाम न हों तो सत्ता भी न हो और सत्ता न हो तो गुणी द्रव्य भी नहीं रहता। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२८४