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गाथा-१०८
प्रवचनसार अनुशीलन पण्डित देवीदासजी भी दो दोहों में इस बात को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
(दोहा) जो है दरव सु गुन नहीं, गुन सुन दरव स्वरूप । दरव सुगुन दोऊ सदा अपनैं अपनैं रूप ।।३४।। यह सु गुन गुनी भेद है दुधा सरवथा नांहि ।
सम्यक दिष्टि जगैं सहज प्रगट होइ घट मांहि ।।३५।। जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है और जो गुण है, वह द्रव्यरूप नहीं है। द्रव्य और गुण - दोनों हमेशा अपने-अपने रूप में रहते हैं।
यह गुण-गुणी रूप दो प्रकार का भेद सर्वथा नहीं है। जब दृष्टि में सम्यक्पना आता है; तब हृदय में यह बात सहज प्रगट हो जाती है अर्थात् सहजता से समझ में आ जाती है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"एक आत्मा का अन्य आत्माओं के साथ तथा एक आत्मा का शरीर के साथ सर्वथा अभाव है; परन्तु अन्य द्रव्य और गुण को तथा गुण और पर्याय को अथवा द्रव्य और पर्याय को एक-दूसरे के साथ सर्वथा अभाव नहीं है।
आत्मा और जड़ दोनों पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं, दोनों के बीच अभावस्वभाव की मोटी दीवार खड़ी है - ऐसा अभावस्वभाव द्रव्य तथा गुण के बीच में नहीं है। आत्मा और शरीर के बीच जैसा अभावस्वभाव है, वैसा द्रव्य और गुण के बीच माना जाये तो इसमें तीन दोष आते हैं - १. द्रव्य और गुण के सर्वथा अनेकत्व का प्रसंग, २. उभय शून्यता का प्रसंग और ३. अपोहरूपता का प्रसंग।"
इसप्रकार इस गाथा में यह कहा गया है कि द्रव्य और सत्ता गुण में परस्पर सर्वथा अभाव नहीं है, अतद्भाव है। इस बात को सिद्ध करते हुए टीका में यह कहा गया है कि यदि द्रव्य और सत्ता गुण में परस्पर सर्वथा अभाव मानोगे तो तीन दोष उपस्थित होंगे; जो इसप्रकार है -
१. जिसप्रकार दो द्रव्यों में परस्पर पृथक्ता है, अनेकत्व है; उसीप्रकार की पृथक्ता या अनेकत्व द्रव्य में और सत्ता गुण में भी हो जायेगा।
२. द्रव्य के अभाव में गुण का सद्भाव संभव नहीं है और गुण के अभाव में द्रव्य का सद्भाव संभव नहीं; इसप्रकार एक के अभाव होने पर दोनों का ही अभाव हो जायेगा। तात्पर्य यह है कि दोनों की शून्यता (उभयशून्यता) हो जावेगी।
३. द्रव्य या सत्ता गुण को परस्पर में एक-दूसरे के अभावरूप स्वीकार करने पर अपोहता अर्थात् सर्वथा पूर्णतः अभावात्मकता आ जावेगी। ___तात्पर्य यह है कि द्रव्य और गुण मात्र अभावरूप (निगेटिव) ही रहेंगे, उनका कोई भावात्मक (पॉजिटिव) स्वरूप नहीं रहेगा। ___ इसलिए यही ठीक है कि हम द्रव्य और सत्ता गुण को पृथक्-पृथक् तो न माने, पर अन्य-अन्य तो मानना ही चाहिए। इसप्रकार इन दोनों में कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता सिद्ध होती है।
इन देहादि परपदार्थों से भिन्न निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होना ही एक अभूतपूर्व अद्भुत क्रान्ति है, धर्म का आरम्भ है, सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है, सम्यक्चारित्र है, साक्षात् मोक्ष का मार्ग है, भगवान बनने, समस्त दुःखों को दूर करने और अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है।
- आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-५१
१. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२७६ २. वही, पृष्ठ-२७७