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________________ प्रवचनसार गाथा १०८ विगत गाथा में अतद्भाव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि सर्वथा अभाव का नाम अतद्भाव नहीं है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - दव्वं तं गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो । एसो हि अतब्भावो णेव अभावो ति णिद्दिट्ठो ।। १०८ । । ( हरिगीत ) द्रव्य वह गुण नहीं अर गुण द्रव्य ना अतद्भाव यह । सर्वथा जो अभाव है वह नहीं अतद्भाव है ।। १०८ ।। स्वरूप अपेक्षा से जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है और जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है - यह अतद्भाव है, सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं है। ऐसा जिनदेव ने कहा है। इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - 66 'एक द्रव्य में जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है और जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है - इसप्रकार जो द्रव्य का गुणरूप से अभवन (नहीं होना) अथवा गुण का द्रव्यरूप से अभवन है; वह अतद्भाव है; क्योंकि इतने से ही अन्यत्वरूप व्यवहार सिद्ध हो जाता है। 'द्रव्य का अभाव गुण है और गुण का अभाव द्रव्य है' - ऐसे लक्षणवाला अभाव अतद्भाव नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो एक द्रव्य को अनेकत्व आ जावेगा, उभयशून्यता (दोनों का अभाव) आ जावेगी अथवा अपोहरूपता आ जावेगी । अब इसी बात को विस्तार से समझाते हैं - चेतनद्रव्य का अभाव अचेतनद्रव्य है और अचेतनद्रव्य का अभाव चेतनद्रव्य है - इसप्रकार का अभाव तो भिन्न-भिन्न अनेक द्रव्यों में पाया गाथा - १०८ ९३ जाता है। इसकारण 'द्रव्य का अभाव गुण और गुण का अभाव द्रव्य' यदि ऐसा माना जाय तो जिसप्रकार भिन्न-भिन्न द्रव्यों में अनेकत्व है, उसी प्रकार का अनेकत्व द्रव्य और गुण में भी तो हो जायेगा । जिसप्रकार सोने का अभाव होने पर सोनेपन का अभाव हो जाता है। और सोनेपन का अभाव होने पर सोने का अभाव हो जाता है इसप्रकार उभयशून्यता (दोनों का अभाव) हो जाती है; उसीप्रकार द्रव्य का अभाव होने पर गुण का अभाव और गुण का अभाव होने पर द्रव्य का अभाव हो जावेगा अर्थात् दोनों का अभाव हो जायेगा, उभयशून्यता हो जावेगी । जिसप्रकार पटाभाव (वस्त्र का अभाव ) मात्र घट (घड़ा) है और घटाभाव मात्र पट है; इसप्रकार दोनों के अपोहरूपता (केवल नकारात्मकता) है; उसीप्रकार द्रव्याभाव मात्र गुण है और गुणाभाव मात्र द्रव्य है - इसप्रकार इसमें भी अपोहरूपता आ जावेगी । इसप्रकार द्रव्य का अभाव गुण और गुण का अभाव द्रव्य मानने पर द्रव्य और गुण को अनेकत्व, उभयशून्यता और अपोहरूपता (केवल नकारात्मकता) के प्रसंग उपस्थित होंगे। इसलिए द्रव्य और गुण में एकत्व, अशून्यत्व और अनपोहत्व को चाहनेवाले अतद्भाव का वही लक्षण स्वीकार करें; जो कि यहाँ कहा गया है।" आचार्य जयसेन भी इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी २ मनहरण कवित्त और १ दोहा - इसप्रकार ३ छन्दों के माध्यम से इस गाथा और उसकी टीका के भाव को प्रस्तुत करते हैं; जिनमें से दोहा इसप्रकार है - (दोहा) दरव और गुन के विषै है अन्यत्व विभेद । जुदे दोउ नहिं सरवथा, श्रीगुरु करी निषेद ।। द्रव्य और गुण में अन्यत्व का भेद ही है, पृथक्ता का भेद नहीं; दोनों सर्वथा पृथक् हों - इसका निषेध श्रीगुरु ने कठोरतापूर्वक कर दिया है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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