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________________ प्रवचनसार अनुशीलन भेद है - ऐसा सम्यग्ज्ञान वर्तता है; किन्तु गुण-गुणी सर्वथा एक हैं - ऐसा ज्ञान नहीं वर्तता । द्रव्य में अनेक ज्ञेय जानने में आते हैं, इस अनेकता का ज्ञान राग का कारण नहीं है।' जीव ज्ञान से सभी ज्ञेयों को जाने इसमें आपत्ति नहीं है। ज्ञान का स्वभाव तो जानने का ही है। एक अभेद आत्मा को जाने तो राग न हो; किन्तु अनेक को जाने तो राग हो - ऐसा वस्तुस्वरूप ही नहीं है। प्रश्न - इतना सब ज्ञान करें तो ज्ञान को आराम कब मिलेगा? उत्तर - भाई ! अपने अमर्यादित ज्ञानस्वभाव को संकुचित करके अल्प करना आराम नहीं है। वह जीव तो अपने ज्ञान को ढंकता है। आत्मा का ज्ञानस्वभाव तो अखण्डरूप से अपने को परिपूर्ण जानने का है और तीनों काल, तीनों लोक के पदार्थों को एक ही समय में जानने का है - ऐसे स्वभाव की सामर्थ्य की महिमा आना चाहिए। ___इतनी शक्तिवाला ज्ञानस्वभाव है - ऐसी श्रद्धा करना दृष्टि का आराम है और परिपूर्ण स्वभाव में अभेद होना परिपूर्ण आराम है।' ___इस ज्ञान के बिना सच्चा ध्यान नहीं होता। आत्मा सामान्य द्रव्यरूप से, ज्ञानादि गुणरूप से और सिद्धत्व आदि पर्यायरूप से त्रिधा विस्ताररूप कहा गया है। इसीप्रकार सभी द्रव्यों का स्वरूप समझना चाहिए।' यह ज्ञेय अधिकार है; इसीलिए स्वज्ञेय और परज्ञेय का भेद करके यथार्थ ज्ञान करना सम्यग्दर्शन तथा वीतरागता का कारण है - ऐसा यहाँ बताया गया है।" __इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अर्थात् सत्ता गुण अपने-अपने में है; जिसे हम अवान्तरसत्ता या स्वरूपास्तित्व भी कहते हैं। जिसप्रकार भारतीय मुद्रा की इकाई रुपया है। पैसों का जो भेद है, वह रुपये के अन्तर्गत ही है; इसीकारण ५० पैसे के सिक्के पर १/२ रुपया लिखा रहता है। उसीप्रकार स्वरूपास्तित्व या अवान्तरसत्ता जैनदर्शन की १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२६५ २. वही, पृष्ठ-२६६ ३. वही, पृष्ठ-२६९ ४. वही, पृष्ठ-२७१। ५. वही, पृष्ठ-२७३ गाथा-१०७ इकाई है। द्रव्य-गुण-पर्याय के जो भेद हैं; वे इसके अन्तर्गत ही आते हैं। महासत्ता का दूसरा नाम सादृश्यास्तित्व भी है; जो अपने नाम से ही यह सूचित करता है कि यह सत्ता सभी में समानता के आधार पर ही मानी गई है। तात्पर्य यह है कि सभी द्रव्यों का अस्तित्व समान ही है; इसकारण सभी महासत्ता के अन्तर्गत आ जाते हैं। यह एकता उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनयसे है और स्वरूपास्तित्व के अन्तर्गत द्रव्य-गुण-पर्याय के जो भेद किये जाते हैं; वेसब अनुपचरितसद्भूत-व्यवहारनय के अन्तर्गत आते हैं। ____ तात्पर्य यह है कि सभी द्रव्यों की एकता असद्भूत है, उपचरित है और एक द्रव्य में भेद करना सद्भूत है, अनुपचरित है; इसलिए सादृश्यास्तित्व के आधार पर अपनी सत्ता के समान अन्य सभी की सत्ता स्वीकार करते हुए अपना अपनापन अपने स्वरूपास्तित्व में स्थापित करना ही उचित है। प्रश्न - सभी द्रव्यों की एकता उपचरित-असद्भूत और एक द्रव्य में भेद करना अनुपचरित-सद्भूत क्यों है, कैसे है ? उत्तर - सादृश्यास्तित्व के आधार पर की गई विभिन्न द्रव्यों की एकता वास्तविक नहीं है; इसलिए असद्भूत है और वे सभी द्रव्य एकक्षेत्रावगाही नहीं हैं; इसलिए उनमें परस्पर दूर का संबंध होने से उपचरित है। एकवस्तु में होनेवाले द्रव्य, गुण, पर्याय के भेद वास्तविक हैं; इसलिए सद्भूत हैं और वे एकक्षेत्रावगाही हैं; इसलिए अनुपचरित हैं। वास्तविक बात यह है कि भिन्न-भिन्न द्रव्यों में सदृशता के आधार पर जो एकता की जाती है; उनमें परस्पर अत्यन्ताभाव होता है और एक वस्तु के द्रव्य, गुण, पर्यायों के बीच अतद्भाव होता है। जहाँ अत्यन्ताभाव होता है, वहाँ असद्भूतव्यवहारनय लगता है और जहाँ अतद्भाव होता है, वहाँ सद्भूतव्यवहारनय लगता है। उक्त सन्दर्भ में विशेष जानकारी करने के लिए लेखक की अन्य कृति 'परमभावप्रकाशक नयचक्र' के व्यवहारनय :भेद-प्रभेदसंबंधी प्रकरण का स्वाध्याय करना चाहिए।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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